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________________ (१०) सकती। दर्शन और ज्ञान, आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्मज्ञान के प्रतीक हैं जो समता के मूल कारण हैं। इसलिए चारित्र को "धर्म" कहा गया है। धर्म तथा समता को राग-द्वेषादिक विकार भावों की अभावात्मक स्थिति कहा जाता है। ममत्व का विसर्जन और सहिष्णुता का सर्जन उसके आवशयक अङ्ग हैं। मानसिक चंचलता को संयम की लगाम से वशीभूत करना तथा भौतिकता की विषादाग्नि को आध्यात्मिकता के शीतल जल से शमित करना समता की अपेक्षित तत्त्व दृष्टि है सहयोग, सद्भाव, समन्वय और संयम उसके महास्तम्भ हैं, श्रमण का यही सही रूप है, स्वरूप है। इसी को आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार कहा है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिदिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामों अप्पणो हि समो।। सुविदितपयत्य सुत्तो संजम तव संजुदो विगदरागो। समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगो ति।। समता आत्मा का सच्चा धर्म है। इसलिए आत्मा को “समय' भी कहा जाता है। "समय" की गहन और विशुद्ध व्याख्या करने वाले समयसार आदि ग्रन्ध्र इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं। सामायिक जैसी क्रियायें उसके “फील्डवर्क' हैं। अहिंसा उसी का एक अङ्ग है। वह तो एक निर्द्वन्द्व और शून्य अवस्था है जिसमें व्यक्ति निष्पक्ष, वीतराग, सुख-दुःख में निर्लिप्त, प्रशंसा-निन्दा में निरासक्त, लोष्ठ-काँचन में निर्लिप्त तथा जीवन-मरण में निर्भय रहता है। यही श्रमण अवस्था है। . वीतरागता से जुड़ी हुई समता अध्यात्मिक समता है जो आगमों और कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों में दिखाई देती है। माध्यस्थ भाव से जुड़ी हुई समता दार्शनिक समता है जिसे हम स्याद्वाद, अनेकान्तवाद किंवा विभज्यवाद में देख सकते हैं तथा कारुण्यमूलक समता पर राजनीति के कुछ वाद प्रस्थापित हुए हैं। मार्क्स का साम्यवाद ऐसी ही पृष्ठभूमि लिए हुए है, गांधी जी का सर्वोदयवाद महावीर के सर्वोदयतीर्थ पर आधारित है, जिसका सर्वप्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र ने किया था। सर्वान्तवत् तदगुण मुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षं। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।। मानवीय एकता, सह-अस्तित्व, समानता और सर्वोदयता धर्म के तात्त्विक अङ्ग हैं। तथाकथित धार्मिक विद्वान् और आचार्य इन अङ्गों को तोड़-मरोड़कर स्वार्थवश वर्गभेद और वर्णभेद जैसी विचित्र धारणाओं की विषैली आग को पैदा कर देते हैं, जिसमें १. प्रवचनसार १.७; १.१४.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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