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________________ (११) समाज की भेड़िया धसान वाली वृत्ति वैचारिक धरातल से असंबद्ध होकर कूद पड़ती है। उसके सारे समीकरण झुलस जाते हैं, शोषण की मनोवृत्ति सहानुभूति और सामाजिकता की भावना को दूषित कर देती है, वैयक्तिक और सामूहिक शान्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है । इस दुर्वस्था की सारी जिम्मेदारी एकान्तवादी चिन्तकों सबल हिंसक कंधों पर है जिसने समाज को एक भटकाव दिया है, अशान्ति का एक आकार-प्रकार खड़ा किया है और पड़ोसी को पड़ोसी जैसी रहने में संकोच, वितृष्णा और मर्यादाहीन भरे व्यवहारों की लौहिक दीवार को गढ़ दिया है। अनेकान्तवाद और सर्वोदय दर्शन इन सभी प्रकार की विषमताओं से आपादमग्न समाज को एक नई दिशादान देता है। उसकी कटी पतंग को किसी तरह सम्भालकर • उसमें अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर, मजबूत और सामुदायिक चेतना से सजी डोर लगा देता है, आस्था और ज्ञान की व्यवस्था में प्राण फूंक देता है। तब संघर्ष के . स्वर बदल जाते हैं, समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि, सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है, अपने शास्त्रीय व्यामोह से मुक्त होने के लिये, अपने वैयक्तिक एकपक्षीय विचारों की आहूति देने के लिए, दूसरे के दृष्टिकोण को सम्मान देने के लिए और निष्पक्षता, निवैरता-निर्भयता की चेतना के स्तर पर मानवता को धूल-धूसरित होने से बचाने के लिए। सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है। खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है, प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है, अस्ति नास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिध्वनित शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेम पूर्वक एक प्लेटफार्म पर बैठा देता है । चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में 'न या सियावाय वियागरेज्ज' (सूत्रकृताङ्ग) का उपदेश समाज और व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है। आचार्य सिद्धसेन ने 'उदधाविवसमुद्रीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टयः' कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र सूरि की भी समन्वय - साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है भवीजांकुरजनना, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णु र्वा, हरो, जिनो वा नमस्तस्मै ।। २.१ धर्म का गुणात्मक स्वरूप धर्म वस्तुतः आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारुण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकारवृत्ति, संयम, अहिंसा, अपरिग्रह जैसे गुण विद्यमान रहते हैं, वह किसी जाति,
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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