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________________ (१२) या सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोक, मांगलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से सम्भव है। धर्म के इस गुणात्मक स्वरूप की परिभाषायें इस प्रकार मिलती हैं(१) धम्मो दया विसुद्धो - बोध पाहुड, ३५; नियमसार, वृ०६; वरांगचरित १५-१०७, कार्तिकेया. ९७। (२) धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो, तवो-दशवैकालिकसूत्र, १.१ त. वार्तिक, ६.१३.५; सर्वार्थसिद्धि, ६.१३। (३) क्षन्त्यादि लक्षणो धर्म - तत्त्वार्थसार ६.५२; भावसंग्रह, वाम, ३०६ तत्त्वार्थ वृत्ति, श्रुत ६-१३; उपासकाध्ययन, ३; धर्मसं. श्रा. १०-९९; आदि। . धर्म और अहिंसा में शब्दभेद है. गण-भेद नहीं। धर्म अहिंसा है और अहिंसा धर्म है क्षेत्र उसका व्यापक है। अहिंसा निषेधार्थक शब्द है। विधेयात्मक अवस्था के बाद ही निषेधात्मक अवस्था आती हैं। अत: विधिपरक हिंसा के अनन्तर इसका प्रयोग हुआ होगा। इसलिए संयम, तप, दया आदि जैसे विधेयात्मक मानवीय शब्दों का प्रयोग पूर्वतर रहा होगा। पर्यावरण भी इसी से संबद्ध है। . हिंसा का मूल कारण है- प्रमाण और कषाय। इसके वशीभूत होकर जीव के मन, वचन, कार्य में क्रोधादिक भाव प्रगट होते हैं जिनसे स्वयं के शब्द प्रयोग रूप भाव प्राणों का हनन होता हैं कषायादिक तीव्रता के फलस्वरूप उसके आत्मघात रूप द्रव्य प्राणों का हनन होता हैं, इसके अतिरिक्त दूसरे के मर्मान्तक वेदनादान अथवा परद्रव्यव्यवपरोपण भी इन्हीं भावों का कारण है इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना, फिरना, उठना-बैठना, खाना-पीना, चाहिए, इसका विधान मूलाचार, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। समस्त प्राणियों के प्रति संयम भाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूयेषु संजमो। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित हैं। मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व-पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरुष है। जिसका चित्त मलीन और दूषित रहता है, वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता। जिस प्रकार घिसना, छेदना, तपाना और रगड़ना इन चार ‘उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती हैं उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया - १. प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा, तत्त्वार्थसूत्र, ७.१३. २. दशवैकालिकसूत्र, ६.९.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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