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वसुनन्दि-श्रावकाचार (११३) आचार्य वसुनन्दि) शिकार दोष वर्णन
सम्मत्तस्स पहाणो अणुकंवा वण्णिओ गुणो जम्हा। पारद्धि रमण सीलो सम्मत्तविराहओ तम्हा।।९४।।
अन्वयार्थ– (सम्मत्तस्स पहाणो गुणो) सम्यक्त्व का प्रधान गुण, (जम्हा) यतः, (अणुकंवा वण्णिओ) अनुकम्पा कहा गया है, (तम्हा) ततः, (पारद्धि रमणसीलो) शिकार के स्वभाव वाला, (सम्मत्तविराहओ) सम्यक्त्व का विराधक है।
भावार्थ- सम्यग्दर्शन का प्रधान गुण अनुकम्पा कहा गया है जिसके अन्दर अनुकम्पा आदि गुण हैं वह सम्यग्दृष्टि है, किन्तु जिनके अन्दर अनुकम्पा नहीं है, जो शिकार आदि हिंसक कार्यों में लगे रहते हैं वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं अर्थात् नहीं हो सकते।।९४।। .
दवण. मुक्ककेसं पलायमाणं तहा पराहुत्तं । रद' परियतिणं सूरा कयापराहं वि ण हणंति।।९५।।
अन्वयार्थ– (मुक्ककेसं) जिनके केश मुक्त हैं, (पलायमान) भाग रहे है, (तहा) तथा, (पराहुत्तं) पराङ्गमुख है, (रदधरियतिण) दांतों से तृण दावे हुए है (ऐसे), (कयावराहं वि) अपराधी जीव को भी, (सूरा ण हणंति) शूरवीर नहीं मारते हैं।
भावार्थ- जो मुक्त केश है अर्थात् डर के मारे जिनके रोंगटे खड़े हो गये हैं, ऐसे भागते हुए तथा पराङ्मुख अर्थात् अपनी ओर पीठ किये हुए है और दांतों में जो तृण अर्थात् घास को दाबे हुए हैं, ऐसे अपराध करने वाले जीवों को भी शूरवीर नहीं मारते। फिर निरपराध पशुओं को कैसे मार सकते है? ।।९५।।
णिच्चं पलायमाणो तिण चारी तह णिरवराहो वि। .. कह णिग्यणो हणिज्जइ आरण्णणिवासिणो वि मए ।।९६।। - अन्वयार्थ- (णिच्चं पलायमाणो) (जो भय से) नित्य ही भागने वाले है, (तिणचारी) तृण चरते है, (तह) तथा, (णिरवराहो वि) निरपराध भी है, (ऐसे), (आरण्णणिवासिणो मए वि) वनों में रहने वाले मृगों को भी, (णिग्यणो) निर्दयी मनुष्य, (कह) कैसे, (हणिज्जइ) मारते हैं?
भावार्थ- जो हमेशा ही भय के कारण इधर-उधर भागते रहते हैं, तृण अर्थात् घास खाने वाले हैं तथा निरपराध भी है ऐसे वनों में रहने वाले मृगों अर्थात् जानवरों १. झ. दंत.
२. ब. तणं ३. ब. तणं.
४. झ.ब. हणिज्जा.