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________________ विसुनन्दि-श्रावकाचार (११४) आचार्य वसनन्दि को कैसे यह पापी निर्दयी मनुष्य मारते हैं? बड़े आश्चर्य की बात है। बलवान् और अपराधी तो कदाचित् दण्ड के पात्र हो सकते हैं, किन्तु यह दीन-हीन प्राणी तो मात्र दया के पात्र हैं।।९६।। गो वंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स होइ' जइ धम्मो। सव्वेसिं जीवाणं दयाए२ ता किं ण सो हुज्जा।।९७।। अन्वयार्थ- (गो वंभणित्थिघायं परिहरमाणस्स) गो-ब्राह्मण एवं स्त्रीघात . का परिहार करने वाले के, (जइ) यदि, (धम्मो होइ) धर्म होता है, (तो), (सव्वेसिं जीवाणं दयाए) सभी जीवों की दया करने से, (ता किं ण सो हुज्जा) वह क्यों नहीं होगा? भावार्थ- जब गाय, ब्राह्मण एवं स्त्री घात का परिहार करने वाले पुरुष को धर्म होता है तब जो सभी जीवों पर दया करेगा उसे धर्म क्यों नहीं होगा अर्थात् अवश्य होगा। सभी जीवों की रक्षा करने से जीवों को अभयदान देने एवं उन्हें न सताने दोनों का पुण्य प्राप्त होगा।।९७।। गो-बंभण-महिलाणं विणिवाए हवइ जह महापावं। तह इयर पाणिघाए वि होइ पावं ण संदेहो।।१८।। अन्वयार्थ- (जह) जिस प्रकार, (गो-वंभण महिलाणं विणिवाए) गाय, ब्राह्मण, महिलाओं को मारने में, (महापावं हवइ) महापाप होता है, (तह) उसी प्रकार, (इयर पाणिघाए वि) दूसरे प्राणियों का घात होने पर भी, (पावं होइ) पाप होता है, (ण संदेहो) इसमें सन्देह नहीं है। भावार्थ- यदि गाय, ब्राह्मण और स्त्रियों की हिंसा करने में महापाप होता है, तो दूसरे प्राणियों का घात करने पर भी हिंसा होती है, इसमें बिल्कुल भी सन्देह नहीं करना चाहिये, क्योंकि सभी जीवों के प्राण समान हैं। सभी को सुख-दुःख का अनुभव होता है और सभी जीवित रहना चाहते, सुखी रहना चाहते हैं।।९८।। महु-मज्ज-मस-सेवी पावइ पावं चिरेण जं घोरं। तं एयदिणे पुरिसो लहेइ पारद्धि रमणेण।।१९।। अन्वयार्थ- (महुमज्ज मंससेवी) मधु, मद्य, मांससेवी, (जं पावं) जिस घोर पाप को, (चिरेण पावइ) बहुत काल में पाता है, (तं) उसको, (घोरं पारद्धि रमणेण) शिकार करने से, (पुरिसो) पुरुष, (एयदिणे लहेइ) एक दिन में प्राप्त करता है। १. ब. इवइ. २. ब. दयायि.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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