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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (११५) आचार्य वसुनन्दि अर्थ- मद्य, मांस, मधु का सेवन करने वाला जिस पाप को बहुत काल में पाता है, उसको शिकारी पुरुष एक दिन में प्राप्त करते हैं। व्याख्या- बहुत काल तक मधु, मद्य और मांस के सेवन करने वाला जिस घोर पाप को प्राप्त होता है, उस पाप को शिकारी पुरुष एक दिन भी शिकार खेलने से प्राप्त होता है अर्थात् मद्य, मांस और मधु से भी कई गुणा पाप शिकार खेलने में है। अत: किसी भी जीव को नहीं मारना चाहिए। एक शिकारी जाल बिछाता है अथवा शिकार करता है, तब उसके परिणाम अत्यन्त खोटे होते हैं। वह यही सोचता रहता है कि कब कोई पशु-पक्षी जाल में फँसे अथवा कब मैं उसका शिकार करूँ। ऐसे खोटे परिणामों के कारण उसे सैकड़ों जीवों को मारने का पाप लगेगा। जबकि किसान खेती करते हुए भी हिंसक नहीं क्योंकि उसके भाव जीव मारने के नहीं धान्य उत्पन्न करने के हैं। अत: द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा छोड़नी. चाहिए।।९९।। संसारम्मि अणंतं दुक्खं पाउणदि तेण पावेण । .. तम्हा विवज्जियव्वा पारद्धी देसविरएण।।१०।। अन्वयार्थ- (तेण पावेण) उस पाप से, (संसारम्मि) संसार में (जीव), (अणंत दुक्ख) अनन्त दुःखों को, (पाउणदि) प्राप्त करता है, (तम्हा) इसलिए, (देस विरएण) देशव्रती को, (पारद्धि) शिकार का, (विवज्जियव्या) त्याग करना चाहिये। . अर्थ- उस शिकार खेलने से उत्पन्न हुए पाप के कारण यह जीव संसार के अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है। अत: इस व्यसन का त्याग देशविरतियों अर्थात् पञ्चम गुणस्थान वरती श्रावकों को तो करना ही चाहिए, सामान्य मनुष्यों द्वारा भी यह (शिकार) छोड़ा जाना चाहिए। . व्याख्या- बेचारी हरिणी जंगल में तृण खाकर रहती है, उसका कोई रक्षक नहीं है। स्वभाव से ही डरपोक है, किसी को सताती नहीं। खेद है कि मांस के लोभी नीच लोग उस हरिणी को भी नहीं छोड़ते हैं। यदि हमें चोटीं भी काटती है तो तलमला है, किन्तु अन्य पशुओं को वाणों, तलवारों या चाकू से बींध डालते समय मन में जरा भी दया नहीं रहती। ऐसे हिंसक पापी मनुष्यों को ध्यान रखना चाहिए कि "जैसा कर्म करोगे, वैसा ही फल भोगना पड़ेगा।" अगर आज शक्तिशाली होकर हम किसी को सताएंगे, काटेंगे तो निश्चित समझो कालान्तर में उसके द्वारा हम भी सतायें जायेंगे और काटे जायेंगे। हिंसा में शिकार सबसे बढ़ा पाप है इसे तो सर्वथा नियमपूर्वक छोड़ना चाहिए।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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