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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (११६) आचार्य वसुनन्दि
आजकल तो और नये आधुनिक ढंग से शिकार होने लगे हैं जैसे चूहों को पिंजरों में पकड़ना, दवा डालकर खटमलों या मच्छरों को मारना, आधुनिक हथियारों या मशीनों से पशुओं को काटना आदि। नाखून पालिस, सौन्दर्य प्रसाधन एवं चमड़े के वेल्ट, पर्स आदि भी पशुओं के क्रूर ढंग से किये गये शिकार से प्राप्त होते हैं। जो व्यक्ति हिंसक सामग्रियों का उपयोग करतेहै वे भी हिंसा पाप के भागीदार हैं, उन्हें भी शिकार व्यसन का दोष लगता है। वे भी कसाई की श्रेणी में गिने जाने योग्य हैं। अत: नेलपालिस, लिपिस्टिक आदि सौन्दर्य प्रसाधनों एवं चमड़े की वस्तुओं का त्याम अनिवार्य रूप से प्रत्येक सदाचारी मनुष्य को करना चाहिये। ___ हम अगर हिंसक वस्तुओं का त्याग कर देंगे तो निश्चित रूप से कुछ पशुओं की हिंसा बचेगी। कम से कम जो हमारे हिस्से में पाप आ रहा था वह तो नहीं आयेगा। अगर दस पुरुष या महिलायें हिंसा से उत्पन्न वस्तुओं का त्याग कर देते हैं तो प्रतिदिन एक बड़े पशु की हिंसा बच सकती है, वह भी सुख का जीवन जी सकता है।
सौन्दर्य प्रसाधनों एवं चमड़े की वस्तुओं की बढ़ती लोकप्रियता को देखकर आजकल कई ऐसी कम्पनियां बाजार में आई है जिनका काम सिर्फ हिंसा से उत्पन्न सामग्रियों को तैयार करवा कर बेचना है। इनके लिए कच्चे माल अर्थात् पशुओं की हड्डी, खून, मांस अथवा खाल की व्यवस्था या तो कसाई करते है या कसाईखाने करते हैं। कई बार तो भोले-भाले किसान भी इन पापियों के लोभ लालच में आकर अपने पशुओं को बेच देते है। कसाईखाने में ले जाकर उनकी क्या दुर्दशा होती है? उन्हें कितने भयङ्कर कष्ट भोगने पड़ते है, उसे वे ही जानते हैं। किसी जीव को दुःख न हो ऐसी भावना धारण कर हिंसक वस्तुओं का सभी को सर्वथा त्याग करना चाहिए।।१०।।
चौर्यदोष-वर्णन परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असाय बहुलाओ। पाउणए जायणाओ ण कयावि सुहं पलोएइ।।१०१।।
अन्वयार्थ- (परदव्व-हरण-सीलो) परद्रव्य को हरण करना ही जिसका स्वभाव है (वह), (इह परलोए) इस लोक में, परलोक में, (असाय-बहुलाओ) दुःखों से मरी हुई, (जायणाओ पाउणए) यातनाओं को पाता है, (सुह) सुख को, (कयावि ण पलोएइ) सुख को कभी भी नहीं देखता है।
भावार्थ- जिस मनुष्य का स्वभाव ही चोरी करना है अर्थात् जिसे दूसरे के धन हरण करने में ही आनन्द आता है, ऐसा वह मनुष्य इस लोक में और परलोक में असाता बहुल अर्थात् भयानक दुःखों से भरी हुई यातनाओं-दुःखों को प्राप्त करता है। ऐसा पापात्मा जीव चाहकर भी सुख का किंचित भी अंश नहीं पाता अर्थात् दुःखी