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वसुनन्दि-श्रावकाचार (११७)
आचार्य वसुनन्दि) ही रहता है।।१०१।।
हरिऊण परस्स धणं चोरो परिवेवमाणसव्वंगो। 'चइऊणणियय गेहं धावइ उप्पहेण संतत्तो।।१०२।।
अन्वयार्थ- (परस्स धणं) दूसरे के धन को, (हरिऊण) हरण कर, (चोरो) चोर (भय से), (परिवेवमाण सव्वंगो) सर्वाङ्ग से कांपता हुआ, (संतत्तो) सन्तप्त होता हुआ, (णिययगेहं चइऊण) अपने पर को छोड़कर, (उप्पहेण) उत्पथ से, (घावइ) भागता है।
भावार्थ- पराये धन को हर कर भयभीत हुआ चोर थर-थर कांपता है और वह अपने घर को छोड़कर सन्तप्त होता हुआ उन्मार्ग से अर्थात् अमार्ग से इधर-उधर भागता है। भयभीत होने के कारण वह सही मार्ग पर भी नहीं जाता है। सोचता है - पकड़ा न जाउ, इसलिये जहां से कोई आता जाता नहीं ऐसे मार्ग से अथवा बिना मार्ग के भागता फिरता है।।१०२।।
किं केण वि दिट्ठो हं ण वेत्ति हिइएण धगधगंतेण । ल्हुक्कड़ पलाइ पखलइ णिहं ण लहेइ भयविट्ठो ।।१०३।।
अन्वयार्थ- (किं केण वि दिवो ह) क्या मैं किसी से देखा गया हँ, (ण वेति) अथवा नहीं देखा गया हूँ, (इति धगधगंतेण) इस प्रकार धक्-धक् करते हुए, (हिइएण) हृदय से, (ल्हुक्कइ-पखलइ) लुकता-छिपता-गिरता, (पलाइ) भागता है, (भयविट्ठो) भय से आविष्ट होने के कारण, (णि ण लहेइ) नींद नहीं लेता है।
भावार्थ-किसी ने मझे देखा है अथवा नहीं? इस प्रकार भयभीत मन से विचार करता हुआ चोर तेज धड़कते हृदय से युक्त होकर लुकता-छिपता भागता है। भागते हुए इधर-उधर देखने के कारण गिर जाता है। पुनः उठकर तेजी से भागता है। इस प्रकार अत्यन्त भयभीत होता हुआ किसी इष्ट स्थान पर पहुंच भी जाता है, तो भी उसे इस बात का भय रहता है, कहीं किसी ने मुझे भागते हुए देख तो नहीं लिया? कहीं कोई पीछा तो नहीं कर रहा था? सो जाने पर इस धन की रक्षा कौन करेगा आदि; विभिन्न चिन्ताओं और भय के कारण वह नींद भी नहीं ले पाता है।।१०३।।
ण गणेइ माय-वप्पं गुरु-मित्तं सामिणं तवस्सिं वा।
पबलेण' हरइ छलेण किंचिण्णं किंपि जं तेसिं ।।१०४।। १. ब. णिययगेहं. २. झ.ब. संत्तट्ठो. ३. म.. पलायमाणो. ४. झ. भयघत्यो, ब. झयबच्छो. ५. झ.ब. पच्चेलिउ. ६. झ. कि घणं, ब. किं वणं.