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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (११८) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (चोर), (माय-वप्पं) माता-पिता, (गुरु-मित्तं) गुरु-मित्र, (सामिणं वा तवस्सि) स्वामी अथवा तपस्वी को, (ण गणेइ) नहीं गिनता है, (प्रत्युत), (तेसिं) उनके पास, (जं किंचिण्णं किंपि) जो किंचित कुछ भी होता है, (पबलेण) बलपूर्वक (अथवा), (छलेण) छल से, (हरइ) हर लेता है। भावार्थ- जिसे चोरी करने की आदत पड़ चुकी है ऐसा मनुष्य अपने मा-बाप, गुरु-मित्र, स्वामी और तपस्वियों को भी कुछ नहीं समझता है, उनसे किंचित भी भयभीत नहीं होता प्रत्युत उनके पास जो थोड़ा कुछ भी होता है उसका भी बलपूर्वकं अथवा छल से हरण कर लेता है।।१०४।। लज्जा तहाभिमाणं जस-सीलविणासमादणासं च। परलोय भयं चोरो अगणंतो साहसं कुणइ।।१०५।। अन्वयार्थ- (चोरो) चोर, (लज्जा अभिमाणं-जस-शीलविणासं) लज्जा, अभिमान, यश, शील, विनाश को, (तहा) तथा, (आदणासं) आत्म नाश को, (च) और, (परलोय भयं) परलोक के भय को, (अगणंतो) न गिनता हुआ (चोरी करने का), (साहस) साहस, (कुणइ) करता है। भावार्थ- चोरी करने वाला लज्जा, अभिमान, यश और शील का तो विनाश करता ही है, अपमान- निन्दा आदि को तो सहता ही है साथ ही वह परलोक के भय को भी न गिनता हुआ अपनी आत्मा को भी पतन के मार्ग पर ले जाकर उसका हनन/तिरस्कार करता है अर्थात् संसाररूपी समुद्र में डुबो कर चोरी आद्रि कुत्सित कृत्य करने का साहस करता है।।१०५।। हरमाणो परदव्वं दगुणारक्खिएहि तो सहसा। रज्जूहिं बंधिऊणं पिप्पइ सो मोर बंधेण।।१०६।। अन्वयार्थ- (सो) उस चोर को, (परदव्यं) परद्रव्य को, (हरमाणो दवण) हरण करता हुआ देखकर, (आरक्खिएहि) आरक्षक, (रज्जूहि) रस्सियों से, (बंधिऊणं) बांध करके, (मोर बंधेण) मोर बंध से, (पिप्पइ) पकड़ लेते हैं। ___ भावार्थ- उस चोर को परधन (द्रव्य) का हरण करते हुए जब कोई आरक्षक, पहरेदार, चौकीदार अथवा कोटपाल देख लेता है, तो वे उस चोर को रस्सियों से बांधकर, मोरबंध अर्थात् पीठ पर दोनों हाथों को पकड़ कर बांध देते है और उसे पकड़कर ले जाते हैं। हिंडाविज्जइ टिंटे रत्थासु चढाविऊण खरपुष्टुिं। वित्थारिज्जइ चोरो एसो ति जणस्स मज्झम्मि।।१०७।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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