SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९१) आचार्य वसुनन्दि अर्थ — जो जीवों पर दयालु चित्त होता हुआ रात्रि में अन्न, पान, खाद्य और लेह्य पदार्थों को नहीं खाता है, वह रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमाधारी है। छठवीं प्रतिमा के स्वरूप को लेकर ग्रन्थकारों में मतभेद हैं। छठवी प्रतिमा का नाम रात्रिभक्तव्रत है। भक्त का अर्थ स्त्रीसेवन भी होता है जिसे सामान्य भाषा में भोगना कहते हैं और भोजन भी होता है। इस ग्रन्थ तथा चारित्रसार और सागार धर्मामृत में जो दिवा मैथुन त्याग का व्रत लेता है वह रात्रिभक्तव्रत है और रत्नकरण्ड श्रावकाचार के अनुसार रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग करना रात्रिभक्तव्रत कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है— जो ज्ञानी श्रावक, रात्रि में चारों प्रकार के भोजन को नहीं करता और न ही दूसरे को कराता है वह रात्रि भोजन का त्यागी होता है (गा० ३८२)। रात्रिभक्त व्रत को ही आचार्यों ने विषय की दृष्टि से दिवामैथुन या रात्रि भोजन त्याग नाम दिये हैं। सम्यक्त्व कौमुदी में कहा है— “रात्रि में औषध, पान तथा पानी आदि चारों प्रकार आहारों का जिसमें त्याग किया जाता है और दिन में मैथुन का त्याग किया जाता है वह रात्रि भुक्तिव्रत नामक प्रतिमा है । ” (पृष्ठ १९२ ) ।। २९६ ।। ब्रह्मचर्य प्रतिमा पुव्वुत्तणवविहाणं पि· मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो । इत्थिकहाइ णिवित्तो? सत्तमगुण बंभयारी सो । । २९७ ।। अन्वयार्थ — (जो) (पुव्वुत्तणवविहाणं) पूर्वोक्त नौ प्रकार के, (मेहुणं) मैथुन को, (सव्वदा सर्वदा, (विवज्जंतो) त्याग करता हुआ, (इत्थिकहाइ पि) स्त्री कथा आदि से भी, (णिवित्तो) निवृत्त हो जाता है, (सो) वह, (सत्तमगुणबंभयारी) सातवें गुणकाधारी ब्रह्मचारी है। विशेषार्थ — स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है सव्वेसिं इत्थीणं जो अहिलासं ण कुव्वदे णाणी । मण-वाया-कायेण य बंभ - वई सो हवे सदओ । । ३८४ । । अर्थ — जो ज्ञानी, मन, वचन काय और कृत- कारित अनुमोदना से सब प्रकार की स्त्रियों की अभिलाषा नहीं करता वह दयालु ब्रह्मचर्यव्रत का धारी है। मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगन्धि वीभत्सं । पश्मन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः । । १४३ ।। २. ब. णियत्तो. १. ब. सव्वहा.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy