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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९२) आचार्य वसुनन्दि शुक्रशोणित रूप मल से उत्पन्न, मलिनता का कारण, मल मूत्रादि को झरा वाले दुर्गन्ध सहित और ग्लानि को उत्पन्न करने वाले शरीर को देखता हुआ जो कामसेवन से विरत होता है, वह ब्रह्मचारी है । चारित्रसार में ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के कहे हैं- उपनय ब्रह्मचारी, अवलम्बन ब्रह्मचारी, दीक्षा ब्रह्मचारी, गूढ़ ब्रह्मचारी, और नैष्ठिक ब्रह्मचारी । यहाँ नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुख्य रूप से वर्णित है, शेष को वहीं से जानना चाहिए। यौवन और सौन्दर्य से युक्त स्त्रियों का अलंकृत शरीर यद्यपि मूर्ख मनुष्यों के लिए आनन्द उत्पन्न करने वाला है तथापि सत्पुरुषों के लिए नहीं। क्योंकि सूजकर फूले हुए बहुत से मुर्दों से अत्यन्त व्याप्त श्मशान को पाकर काले कौओं का समूह ही संतुष्ट होता है, राजहंसों का समूह नहीं । १ आ० शुभचन्द्र कहते हैं वरमालिङ्गिता क्रुद्धा चलल्लोलात्र सर्पिणी । न पुनः कौतुकेनापि नारी नरक पद्धति।। अर्थ — क्रुद्ध एवं चंचल नागिन का आलिंगन कर लेना अच्छा हैं परन्तु कौतुक से भी स्त्री का आलिंगन करना अच्छा नहीं, क्योंकि वह नरक का मार्ग है। उन्होंने और भी कहा है— मालतीव मृदून्यासां विद्धि चाङ्गानि योषितां । दारमिष्यन्ति मर्माणि विपाके ज्ञास्यसि स्वयं । । १ । काकः कृमिकुलाकीर्णे करङ्के कुरुते रतिम् । यथा वद्वराको यं कामी स्त्रीगुह्यमन्थने । । २ । । अर्थ — इन स्त्रियों के शरीर को तू मालती लता के समान कोमल मानता है. सो भले ही मानता रह परन्तु ये विपाककाल में तेरे मर्म को विदीर्ण कर देंगे, यह तू स्वयं जान। जिस प्रकार कौआ कीड़ों से व्याप्त नर पञ्जर में प्रीति करता है उसी प्रकार यह बेचारा कामी पुरुष स्त्री के गुह्यभाग के मन्थन में प्रीति करता है। भावप्राभृतम् (१२०) की टीका में कहा है गूथकीटो यथा गूथे रतिं कुरुत एव हि। तथा स्त्र्यमेध्यसंजातः कामी स्त्रीविड्रतो भवेत ।। १. भावप्राभृत गाथा १२० की टीका.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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