SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कन्द वसुनन्दि-श्रावकाचार (२९०) आचार्य वसुनन्दि - जमीकन्द प्रसून - गोभी आदि के फूल बीज - गेहूं आदि ये अप्रासुक अवस्था में सचित्त (जीवयुक्त) होते हैं। अतएव इसको जो नहीं खाता, उसे सचित्त त्याग प्रतिमाधारी कहते हैं। इसमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि श्रावक अभक्ष्य भक्षण नहीं करता है, अतएव श्रावक अवस्था के प्रारम्भ में ही जमीकन्दादिक का त्याग हो जाता है। यहाँ भक्ष्य पदार्थों में यदि वह पदार्थ सचित्त हो, तो उसको खाने का निषेध किया है। दिवामैथुन त्याग-प्रतिमा मण-वयण-काय-कय- 'कारियाणुमोएहिं मेहुणं णावधा। दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावओ छट्ठो।। २९६।। अन्वयार्थ– (जो) जो, (मण-वयण-काय) मन, वचन, काय (और), (कय-कारियाणुमोएहिं) कृत, कारित, अनुमोदना से, (णवधा) नौ प्रकार, (मेहुण) मैथुन को, (दिवसम्मि) दिन में, (विवज्जइ) छोड़ता है, (सो) वह, (छट्ठो) छठा, (सावओ) श्रावक है। अर्थ- जो पुरुष मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना इन नवकोटियों से दिवस में स्त्री सेवन का त्याग करता है, वह श्रावक छटवी प्रतिमा का धारक कहा गया है। व्याख्या- सागार धर्मामृत में कहा गया है स्त्रीवैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्राग्वृत्तनिष्ठितः। यस्त्रिधाऽह्नि भजेन्न स्त्रीं रात्रिभक्तव्रतस्तु सः।।७/१२।। . अर्थ- जो पाँच प्रतिमाओं के आचार में पूरी तरह से परिपक्व होकर स्त्रियों से वैराग्य के निमित्तों में एकाग्र मन होता हुआ मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से दिन में स्त्री का सेवन नहीं करता, वह रात्रिभक्तव्रत होता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा गया है अन्नं पानं खाद्यं लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्। स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः।। १४२।। १. ब. किरियाणु..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy