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________________ क्सुनन्दि-श्रावकाचार . (२८९) आचार्य वसुनन्दि वनस्पति के दो भेद हैं- सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक। जिस वनस्पति के आश्रय से साधारण वनस्पतिकायिक जीव रहते हैं उसे निगोद कहते हैं। ऐसे जीव सप्रतिष्ठित,प्रत्येक में भी होते हैं। ऐसी वनस्पति को पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक पैर से छूने में भी ग्लानि करता है। यद्यपि सामान्य श्रावक भी ऐसा करता है किन्तु सचित्तत्यागी उससे भी बढ़कर करता है। महापुराण में ब्राह्मणवर्ण की उत्पत्ति बताते हुए कहा है कि भरत चक्रवर्ती ने परीक्षा के लिए मार्ग में हरित घास बिछवा दी थी। तो जो दयालु विचारवान् आगन्तुक थे वे उस पर नहीं आये। भरत ने उनसे इसका कारण पूछा तो वे बोले- हे देव! हमने सर्वज्ञदेव के वचन सुने हैं हरित अंकुर आदि में अनन्त जीव रहते हैं, जिन्हें निगोद कहते हैं। इसलिए दयामूर्ति सचित्तत्यागी अचित्त-वस्तुओं का ही प्रयोग करता है। जिह्वा इन्द्रिय का जीतना बड़ा कठिन है। जो लोग विषयसख से विरक्त हो जाते हैं वे भी जिह्वा लम्पटी पाये जाते हैं। किन्त सचित्त का त्यागी जिह्वा इन्द्रिय को भी जीत लेता है। सचित्त का त्याग करने से सभी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, क्योंकि सचित्त वस्तु का सेवन मादक और पुष्टिकारक होता है। इसी से यद्यपि सचित्त को अचित्त करके खाने में कुछ अंशों में प्राणिसंयम नहीं पलता किन्तु इन्द्रिय संयम को पालने की दृष्टि से सचित्त त्याग आवश्यक है। ___अचित्त करने के तरीके बताते हुए मूलाचारकार लिखते हैं ___ तत्तं पक्कं सुक्कं अंबिललवणेहि मीसियं दव्वं। ... जं जंतेण य छिण्णं तं सव्वं पासुयं भणिय।। तपाकर, पकाकर, सुखाकर, खटाई-नमक-मिर्च आदि तीक्ष्ण पदार्थ मिलाकर तथा चाकू वगैरह से काटकर देने पर सभी सचित्त वस्तु अचित्त हो जाती है। ऐसी वस्तु के खाने से पहला लाभ तो यह है कि इन्द्रियाँ वश में होती हैं। दूसरे इससे दयाभाव • प्रकट होता है। तीसरे भगवान की आज्ञा का पालन होता है, और चौथे संयम के पालन से ध्यान तथा मोक्ष की सिद्धि होती है, अत: अचित्त वस्तुओं का ही सेवन करना चाहिए। ____और भी कहा है- मूल-फल-शाक-शाखा-करीर-कन्द-प्रसून और बीज इनको अपक्वावस्था में न खाने वाला व्रती सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है। मूल - गाजर, मूली आदि फल - आम, अनार, अमरुद आदि शाक - हरे पत्तेवाली सब्जी वृक्ष की नई कोपल करीर - बांस का अंकुर
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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