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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२८८) सचित्तत्याग- प्रतिमा जं वज्जिज्ज हरियं तुयं, पत्त- पवाल- कंद - फल- बीयं । अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं । । २९५ । । - अन्वयार्थ - (जं) जो, (हरियं तुयं पत्त पवाल- फंद - फल- बीयं) हरित त्वक्, पत्र, प्रवाल, कंद, फल, बीज, (च) और, (अप्पासुगं सलिलं) अप्रासुक जल, ( वज्जिज्जइ) छोड़ता है, (तं) उसे, (सचित्तणिव्वित्ति) सचित्त निवृत्ति नामक, (ठाणं) स्थान होता है। अर्थ — जहाँ पर हरित त्वक् (छाल) पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है, वह सचित्तविनिवृत्ति वाला पांचवां प्रतिमा : स्थान है ।। आम, व्याख्या - जो ज्ञानी श्रावक सचित्त अर्थात् जिसमें जीव मौजूद है ऐसी ह छाल को, नागवल्ली, पालक, मैथी, नींबू, मूली, सरसों, चना, धतूरा, मुनगा वगैरह के पत्तों को नहीं खाता है, सचित्त खरबूज, ककड़ी, पेठी, नीबू, अनार, बिजौरा, केला, सेव, संतरा आदि फलों को नहीं खाता, सचित्त हल्दी, अदरक, बगैरह मूलों को नहीं खाता, छोटी-छोटी नई कोंपलों को नहीं खाता, तथा सचित्त चने, मूंग, तिल, उड़द, अरहर, जौ, गेहूँ, मक्का बगैरह को नहीं खाता, वह सचित्त त्यागी कहलाता है। ऐसा सचित्त त्यागी अप्रासुक जल एवं अन्य वस्तुओं का त्याग करता है । सचित्त त्याग अप्रासुक प्रतिमा के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों के कथनसच्चित्तं पत्त-फलं छल्ली मूलं च किसलयं बीयं । जो ण य भक्खदि णाणी सचित्त विरदो हवे सो दु । । ३७९ ।। (कार्तिकै०) • स्वामि कार्त्तिकेय मूलफलशाकशाखाकरीकन्द प्रसूनबीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति ।। १४१ ।। (रत्न० श्रा०) स्वामी समन्तभद्र हरिताङ्कुरबीजाम्बुलवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठः सचित्तविरतः स्मृतः ।।७/८ ।। (सा०ध. ) - पं० आशाधर - इन सभी श्लोकों का अर्थ उपरोक्त जैसा ही है। आगम में हरित वनस्पति में अनन्त निगोदिया जीवों का वास कहा है। प्रत्येक
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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