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वसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
किया गया हो । प्रायः सभी वैदिक और अवैदिक साहित्यकारों ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण करने की पद्धति को अपनाया है, भले ही वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष ।
यहाँ भी ग्रन्थकर्ता आचार्यश्री वसुनन्दि ग्रन्थ की निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति के लिये, नास्तिकता का परिहार करने के लिये, शिष्टाचार का पालन करने के लिये और उपकार के स्मरण करने के लिये अपने इष्ट देवता विशेष को नमस्कार करते हैं ।
शङ्का -
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होती है?
- क्या इष्टदेव को नमस्कार करने से ही शास्त्र की समाप्ति निर्विघ्नतापूर्वक
भूत,
समाधान – हाँ! जिनेश्वर का स्तवन करने पर विघ्नों का समूह, शाकिनी, सर्प आदि भाग जाते हैं और विष निर्विष हो जाता है। कहा भी है
विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति, विषं निर्विषतां यान्ति,
शाकिनी - भूत - पन्नगाः । स्तूयमाने जिनेश्वरे । । १
जिन भगवान् के स्मरण से बड़े-बड़े उपसर्ग (संकट) टल जाते हैं, बड़े-बड़े कार्यों की सिद्धि हो जाती है। क्या उनका स्मरण करने से ग्रन्थ समाप्ति निर्विघ्न नहीं हो सकती? अर्थात् अवश्य होती है।
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नास्तिकता परिहार आप्त आदि के विषय में आस्तिक्य सम्यक्त्व की प्राप्ति का मूल कारण है। अतः इष्ट देवता को नमस्कार किया गया है। शिष्टाचार, अनुशासनप्रियता एवं बड़ों के प्रति आदरपूर्वक आचरण करना तथा उपकार का स्मरण करना भी मंगलाचरण के प्रमुख कारण हैं । षड्खण्डागम में कहा गया है कि मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता इन छह के व्याख्यान करने के पश्चात् ही आचार्य शास्त्र का व्याख्यान करे।' आचार्य परम्परा से प्राप्त इस न्याय का उल्लंघन करने पर कुमार्ग के प्रवर्तन का प्रसंग आयेगा इसलिये सर्वप्रथम मंगलाचरण आवश्यक होता है।
पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य, श्री, अथ, नमः आदि सभी शब्द मंगल के ही नाम हैं । ३
जो मल का गालन करता है, विनाश करता है, घात करता है, जलाता है, मारता है, शोधन करता है, विध्वंस करता है, वह मंगल कहा जाता है – मम् पापं गालयति मंगलम्' कहा भी है
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गालयदि, विणासयदि, घादेदि, दहेदि, हंति, सोधयदि । विद्धंसेदि मलाई, जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ।।
षट्खण्डागम १/७.
१. समाधि भक्ति: आ. पूज्यपाद । २. ३. ति० प० १ / १०.