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।।श्री वीतरागाय नमः।। सिरि वसुणंदि आइरिय-विरइयं उवासयज्झयणं
वसुनन्दि-श्रावकाचार
मङ्गलाचरण और श्रावकधर्म प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा सुरवइ-किरीड-मणि-किरण-वारि-धाराहि सित्त-पय-कमलं।' वर-सयल-विमल-केवल-पयासिया सेस-तच्चत्थं ।।१।। सायारो णायारो भवियाणं जेण२ देसिओ धम्मो।। णमिऊण तं' जिणिंदं सावय धम्मं परूवेमो।।२।।
(युगलं) अन्वयार्थ— मंगलाचरण करते हुए आचार्यश्री कहते हैं, (सुरवइ-किरीडमणिकिरण-वारि-धाराहि) देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से, (सित्त-पय-कमलं) (जिमके) चरण कमल अभिषिक्त हैं, (वर-सयल-विमल
केवल-पयासिया सेस-तच्चत्थं) (जो) सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण :. तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं, (और) (जेण) जिनके द्वारा, (भवियाणं) भव्य
जीवों के लिए, (सायारो णायारो धम्मो देसिओ) सागार (श्रावकधर्म) और अनागार (मुनिधर्म) धर्म का उपदेश दिया गया है, (तं जिणिंद) उन जिनेन्द्र को, (णमिऊण) नमस्कार करके (वसुनन्दि) (सावयधम्म) श्रावकधर्म का, (परूवेमो) प्ररूपण (कथन) करते हैं।।१-२।।
अर्थ- देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से जिनके चरण कमल अभिषिक्त हैं, जो सर्वोत्कृष्ट निर्मल केवलज्ञान के द्वारा समस्त तत्त्वार्थ को प्रकाशित करने वाले हैं और जिन्होंने भव्य जीवों के लिए श्रावकधर्म और मुनिधर्म का उपदेश दिया है, ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके हम (वसुनन्दि) श्रावकधर्म का प्ररूपण करते हैं।
व्याख्या - शुभ कार्यों के प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण करने की प्राचीन पद्धति है। उपलब्ध साहित्य में शायद ही कोई ऐसा ग्रन्थ हो जिसमें मंगलाचरण न १. ध. जुअलं। २. द. जिणेण।