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________________ (८६) ५. देशसंयत असंयत सम्यग्दृष्टि जीव चारित्र का पालन न करते हुए भी भौतिक साधनों को कर्मबन्धन का कारण मानता है पर यह देश संयमी साधक अहिंसादि व्रतों का स्थूल रूप से पालन करता है और धीरे-धीरे आत्मा की विशुद्धावस्था को प्राप्त करने की ओर बढ़ता चला जाता है। इस क्रम में वह पूर्वोक्त ग्यारह प्रतिमाओं को क्रमश: ग्रहण करता है और शुद्ध चारित्र धारण करते हुए सल्लेखना पूर्वक मरण करता है। इस गुणस्थान को 'देशविरत' भी कहा जाता है। ६. प्रमत्तसंयत यह गुणस्थानवी जीव घर छोड़कर मुनि हो जाता है और अणुव्रतों के स्थान . पर महाव्रतों का परिपालन करता है। चारित्र का सम्यक् पालन करते हुए भी प्रमादवश कभी कभी उसकी मानसिक वृत्ति विषय-कषायादि की ओर झुक जाती है। जैसे ही उसे उस झुकाव का ध्यान आता है, वह पुन: अप्रमत्त हो जाता है। इस तरह उसकी वृत्ति . प्रमाद से अप्रमाद और अप्रमाद से प्रमाद की ओर दौड़ती रहती है। वह संयत रहने पर भी प्रमत्त है। ७. गायत्तसंयत छठा गुणस्थानवी जीव जब अप्रमत्त होकर सम्यक् आचरण करता है तो उसके अप्रमत्त संयत अवस्था प्रगट होती हैं वर्तमान काल में इस गुणस्थान से आगे कोई भी साधु नहीं जा पाता क्योंकि ऊपर के गुणस्थानों को प्राप्त करने की शक्ति उसमें नहीं रहती। इस अवस्था के दो भेद हैं- स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। स्वस्थान अप्रमत्त छठे से सातवें और सातवें से छठे गुणस्थान में घूमता रहता है पर सातिशय अप्रमत्ती मोहनीय कर्म को नष्ट करने के लिए उद्योगशील बना रहता है।३. ८. अपूर्वकरण इस गणस्थान में जीव के भाव अपर्व रूप से विशद्ध होते हैं। इसलिए इसे अपूर्वकरण कहा गया हैं यहाँ से जीव पतित नहीं होता बल्कि उसकी विशुद्धावस्था का रूप निखरता चला जाता है। मोहनीय कर्म को नष्ट करने की भूमिका का भी निर्माण यहीं होता हैं चरित्र की अपेक्षा इस गुणस्थान में क्षायिक व औपशमिक भाव ही सम्भव १. धवला, १.१.१.१३; गोमट्टसार जीवकाण्ड, ४७६. २. पञ्चसंग्रह, १.१४; धवला, १.१.१.१४. ३. वही, (प्रा.), १.१६; तत्त्वार्थसार, २.२५.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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