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हैं। यहाँ एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता।
आठवें गणस्थान से जीवों को दो श्रेणियाँ प्रारम्भ हो जाती है- उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। उपशमश्रेणी में चारित्र मोहनीय कर्म की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम किया जाता है और क्षपकश्रेणी में उनका क्षय किया जाता है। उपशम श्रेणी के चार गुणस्थान होते हैं- आठवें से बारहवें तक। क्षपकश्रेणी के भी चार गुणस्थान होते हैंआठवाँ, नौवाँ, दशवाँ और बारहवाँ। उपशमश्रेणी पर तद्भवमोक्षगामी, अतद्रमोक्षगामी,
औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दोनों प्रकार के जीव चढ़ सकते हैं पर क्षपक श्रेणी पर मात्र तद्भव और अतद्भव मोक्षगामी ही चढ़ने का सामर्थ्य रखते हैं। उपशम श्रेणीवर्ती जीव ग्यारहवें गुणस्थान से नियमत: पतित होता है और वह प्रथम गुणस्थान तक भी पहुँच जाता हैं पर क्षपक श्रेणी का जीव सातवें गुणस्थान से भी आगे बढ़ जाता है। ९. अनिवृत्तिकरण
इसमें सभी जीवों के परिणाम समान (अनिवृत्ति-अविषम) रहते हैं। कर्मों की निर्जरा असंख्यातगुणी बढ़ जाती है और स्थितिबन्ध उत्तरोन" कम होता जाता है। उपशमश्रेणी का जीव मोहनीय कर्म की लोभ प्रकृति को छोड़कर शेष सभी प्रकृतियों का उपशंम करता है और क्षपकश्रेणी का जीव उन .. क्षय करके दशवें गुणस्थान में पहुंच जाता है।२ । १०. सूक्ष्मसांपराय . सांपराय का तात्पार्य है लोभ। इसमें साधक मोहनीय कर्म की शेष सूक्ष्म लोभ प्रकृतियों का भी उपशमकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव उसका क्षयकर बारहवें गुणस्थान को पाता है। इस गुणस्थान का भी काल अन्तर्मुहूर्त है।३ ११. उपशान्तमोह
इस गुणस्थान का साधक सूक्ष्म लोभ का उपशम होते ही शुक्लध्यान के कारण एक अन्तर्मुहूर्त के लिए मोहनीय कर्म को उपशान्त कर वीतराग अवस्था प्राप्त कर लेता हैं पर नियम से वहाँ से गिरकर नीचे के गुणस्थानों में चला जाता है। १. धवला, १. पृ. १८०; धर्मबिन्दु, ८.५; भावसंग्रह, ६४८. २. पञ्चसंग्रह (प्राकृत), १.२०-२१; धवला, १.१.१.१७. . ३. वही, १.२२-२३; तत्त्वार्थवार्तिक, ९.१.२१. ४. भावसंग्रह, ६५५; धवला, १., पृ. १०९.