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________________ (१५) हतं ज्ञानं क्रिया हीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया। धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः।। संयोगमेवेह वदन्ति तज्ञानमेकचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पंगुश्च वने प्रविष्टौ तौ संप्रयुक्तौ नगरे प्रविष्टौ।। जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों और पुण्य-पाप को मिलाकर नव पदार्थों में रुचि होना सम्यग्दर्शन है- तच्चरुई सम्मत्तं-मोक्खपाहुड, ३८। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु का ज्ञान होना भी सम्यग्दर्शन है। वह परोपदेश से अथवा परोपदेश के बिना भी प्रगट होता है। इन दोनों प्रकारों में आत्मप्रतीति होना मूल कारण है। आत्मप्रतीति में सम्यक्ज्ञान होता है। सम्यक्ज्ञान वह है जिसमें संसार के सभी पदार्थ सही स्थिति में प्रतिबिम्बित हों। प्रणाम और नय इसी सीमा में आते हैं। धर्म का उपयोगात्मक स्वरूप भी इसी में अन्तर्भूत है। सम्यक् आचरण को सम्यक्चारित्र कहा जाता है। जिसमें कोई पाप-क्रियायें न हों, कषाय न हों, भाव निर्मल हों तथा पर-पदार्थों में रागादिक विकार न हों। यह सम्यक्चारित्र दो प्रकार का होता है- गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए। एक अणुव्रत है दूसरा महाव्रत है। इन व्रतों की संख्या बारह है- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, दिग्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत जो पंचव्रतों को पालन करने में सहायक बनते हैं और सामायिक,प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा अतिथि संविभाग इन चार व्रतों का पालन करने में सामाजिकता का पालन होता है। यही सामाजिकता धर्म का प्राण है। ३. धर्म का सामाजिक स्वरूप ___ धर्म का सम्बन्ध अध्यात्म के साथ समाज से भी है। सामाजिक सुख सुविधा की उपलब्धि का आधार यदि धार्मिकता है तो यह अधिक आनन्ददायक होता है। श्रावकाचार के निर्धारण में एक उद्देश्य यह भी रहा है कि व्यक्ति अपने सदाचरण से समाज में शान्ति स्थापित करे। उसका यही समाजिक धर्म राष्ट्रीय धर्म है। जैनधर्म भावप्रधान धर्म है इसलिए वहां ऊंच-नीच सभी के लिए समान स्थान रहा है। वैदिक संस्कृति में प्रस्थापित जातिवाद की कठोर श्रृंखलाओं को काटकर महावीर ने जन्म के स्थान पर कर्म का आधार लिया। उन्होंने कहा कि उच्च कुल में उत्पन्न होने मात्र से व्यक्ति को ऊंचा नहीं कहा जा सकता। वह ऊंचा तभी हो सकता है जबकि उसका चरित्र या कर्म ऊंचा हो। इसलिए महावीर ने समता के आधार पर चारों जातियों की एक नई व्याख्या की और उन्हें एक मनुष्य जाति के रूप में देखा—मनुष्य जातिरेकैव।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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