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________________ (१६) कम्मणा बम्भणो होई कम्मुणा होई खत्तियो। वइस्सो कम्मुणो होई सुद्दो होई कम्मुणा।। उत्तरा, २५, १९ ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्त्वतः। एकैव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते ।। महापुराण वस्तुत: जैनधर्म ने समाज और देश को अभ्यन्नत करने के लिए सभी प्रकार से प्रयत्न किया है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र से भ्रष्टाचार दूरकर सर्वोदयवादी और अहिंसावादी विचारधारा को प्रचारित करने का अथक प्रयत्न किया, धनोपार्जन के सिद्धान्तों को न्यायवत्ता की ओर मोड़ा, मूक प्राणियों की वेदना को अहिंसा की चेतनादायी संजीविनी से दूर किया, सामाजिक विषमता की सर्वभक्षी अग्नि को समता के शीतल जल और मन्द वयार से शान्त किया। जीवन के हर अंग में अहिंसा के. महत्त्व को प्रदर्शित कर मानवता के संरक्षण में जैनधर्म ने सर्वाधिक योगदान दिया। यह उसकी गहन चारित्रिक निष्ठा का परिणाम था। . ४. धर्म और सामाजिक सन्तुलन सामाजिक सन्तुलन धर्म की इन सभी परिभाषाओं से आबद्ध है। मानवता का पाठ पढ़ाकर समता मूलक अहिंसा की प्रतिष्ठा करता है और प्राणिमात्र को सुरक्षा प्रदान करने का दृढ़ संकल्प देता हैं सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक प्रदूषण को दूर करने की दिशा में जैनधर्म ने जो महनीय योगदान दिया है वह अपने आप में अनूठा है। इस दृष्टि से धर्म की परिभाषा में और सामाजिक सन्तुलन में जैनधर्म जितना खरा उतरता है उतना अन्य कोई धर्म दिखाई नहीं देता। जैनधर्म वस्तुत: मानव धर्म है, मानवता की निम्नतम गहराई तक पहुंचकर दूसरे के कल्याण की बात सोचता है। यही उसकी अहिंसा है, यही उसका कारुणिक रूप है और इसी से पर्यावरण की सुरक्षा होती है। मानवता पर्यावरण का आधार है। दानवता से प्रदूषण पलता है। अहिंसा, संयम, समता और करुणा मानवता के अंग हैं, पर्यावरण के रक्षक हैं। जैनधर्म सर्वाधिक मानवतावादी धर्म है, अहिंसा का प्रतिष्ठापक हैं इसलिए पर्यावरण की समग्रता को समाहित किये हुए है। आधुनिक युग में विनोबाजी का सर्वोदयवाद बड़ा लोकप्रिय हुआ हैं उन्होंने उसे मानवता से जोड़कर राजनीति को लोकमंगलकारी बनाने का प्रशस्त प्रयत्न किया है। पर्यावरण की भी मूल भूमिका यही है और जैनधर्म भी इसी पगडण्डी पर चलने वाला पथिक रहा है। अत: यहां पर्यावरण की पृष्ठभूमि में सर्वोदयवाद और मानवतावादी जैनधर्म पर संयुक्त रूप से भी विचार कर लेना आप्रासंगिक नहीं होगा।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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