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________________ (१७) ५. सर्वोदय दर्शन और सामुदायिक चेतना जैनधर्म श्रमण संस्कृति की आधारशिला है। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद और एकात्मकता उसके विशाल स्तम्भ हैं जिनपर उसका भव्य प्रासाद खड़ा हुआ है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र और तप उसके सोपान हैं जिसके माध्यम से भव्य प्रसाद के ऊपर तक पहुंचा जा सकता है । सर्वोदय उसकी लहराती सुन्दर ध्वजा है जिसे लोग दूर से ही देखकर उसकी मानवीय विशेषता को समझ लेते हैं । समता इस ध्वजा का मेरूदण्ड है जिसपर वह अवलम्बित है और वीतरागता उस प्रासाद की रमणीकता है जिसे उसकी आत्मा कहा जा सकता है। श्रमण संस्कृति की ये मूलभूत विशेषताएं सर्वोदय दर्शन में आसानी से देखी जा सकती है। सर्वोदय दर्शन वस्तुतः आधुनिक चेतना की देन नहीं । उसे यथार्थ में महावीर ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने सामाजिक विषमता को देखकर क्रान्ति के तीन सूत्र दिये —– (१) समता, (२) शमता, (३) श्रमशीलता । उनमें जिनसेन ने समता को स्पष्ट करते हुए कहा है कि समता का तात्पर्य है सभी व्यक्ति समान है। जन्म से न तो कोई ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है न वैश्य है, न शूद्र है। मनुष्य तो जाति नामकर्म के उदय से एक ही हैं, आजीविका और कर्म के भेद से अवश्य उसे चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है— मनुष्यजातिरेकैव जातिकर्मोदयादभवा । वृत्तिभेदाहितदभेदाच्चतुर्विध्यमिहानुते ।। जिनसेनाचार्य आदिपुराण ३८, ४५ शमता कर्मों के समूल विनाश से सम्बद्ध है। इस अवस्था को निर्वाण कहा जाता है। वैदिक संस्कृति का मूलरूप स्वर्ग तक ही सीमित था । उसमें निर्वाण का कोई स्थान ही नहीं था जैनधर्म के प्रभाव से उपनिषदकाल में उसमें निर्वाण की कल्पना ने जन्म लिया। जैनधर्म के अनुसार निर्वाण के दरवाजे सभी के लिए खुले हुए हैं। वहां पहुंचने के लिए किसी वर्ग विशेष में जन्म लेना आवश्यक नहीं । आवश्यक है, उत्तम प्रकार का चारित्र और विशुद्ध जीवन । श्रमशीलता श्रमण संस्कृति की तीसरी विशेषता है। इसका तात्पर्य है व्यक्ति का विकास उसके स्वयं के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है, ईश्वर आदि की कृपा कर नहीं । वैदिक संस्कृति में स्वयं का पुरुषार्थ होने बावजूद उस पर ईश्वर का अधिकार है। ईश्वर की कृपा से ही व्यक्ति स्वर्ग और नरक जा सकता है। जैन संस्कृति में इस प्रकार के ईश्वर का कोई स्थान नहीं। वह तो जो कुछ भी कर्म करता है उसी का फल उसी को स्वतः मिल जाता है। कर्म के कर्त्ता और भोक्ता के बीच ईश्वर जैसे दलाल का कोई
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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