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________________ (१८) स्थान नहीं। ईश्वर यदि हम आप जैसा दलाल होगा तो फिर सृष्टि के रचने के बीच भेदक-रेखा ही क्या रहेगी? हाँ, जैनधर्म में दान-पूजा भक्ति-भाव का महत्त्व निश्चित ही है। इन सत्कर्मों के माध्यम से साधक अपने निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त अवश्य कर लेता हैं इसमें तीर्थङ्कर मात्र मार्गदृष्टा है प्रदीप के समान, वह निर्वाणदाता नहीं। इसलिए व्यक्ति के स्वयं का पुरुषार्थ ही उसके लिए सब कुछ हो जाता है। ईश्वर की कृपा से उसका कोई सम्बन्ध नहीं। पराश्रय से विकास अवरुद्ध हो जाता है। बैसाखी का सहारा स्वयं का सहारा नहीं माना जा सकता। अत: जैनधर्म में व्यक्ति का कर्म और उसका पुरुषार्थ ही प्रमुख है। ___ सर्वोदयदर्शन आधुनिककाल में गांधीयुग का प्रदेय माना जाता हैं गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक "अन टू दी लास्ट' का अनुवाद सर्वोदय शीर्षक से किया और तभी से उसकी लोकप्रियता में बाढ़ आयी। यहां सर्वोदयवाद का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को लौकिक जीवन के विकास के लिए समान अवसर प्रदान किया जाना। इसमें पुरुषार्थ का महत्त्व तथा सभी के उत्कर्ष के साथ स्वयं के उत्कर्ष का सम्बन्ध भी जुड़ा रहता. हैं गांधीजी के इस सिद्धान्त को विनोबाजी ने कुछ और विशिष्ट प्रक्रिया देकर कार्यक्षेत्र में उतार दिया। सर्वोदय का प्रचार यहीं से हुआ हैं वैसे इतिहास की दृष्टि से विचार किया जाये तो सर्वोदय शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जैन साहित्य में हुआ हैं प्रसिद्ध जैन तार्किक आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् महावीर की स्तुति “युक्त्यनुशासन'' में 'सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव' कहकर की है। यहां सर्वोदय शब्द दृष्टव्य है। सर्वोदय का तात्पर्य है सभी की भलाई। महावीर के सिद्धान्तों में सभी की भलाई सन्निहित है। उसमें परिश्रम और समान अवसर का भी लाभ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुरक्षित है। राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि भाव, संपत्ति का अपरिमित संग्रह, दूसरे की दृष्टि को बिना समझे ही निरादरकर संघर्ष को मोल लेना तथा राष्ट्रीयता का अभाव ये चार प्रमुख तत्त्व व्यक्ति के विकास में बाधक होते हैं। सभी का विकास (१) अहिंसा, (२) अपरिग्रह, (३) अनेकान्तवाद और (४) एकात्मता पर विशेष आधारित है। अत: जैनधर्म के इन सर्वोदयी सूत्रों पर संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है जिनका सम्बन्ध समूचे पर्यावरण से है। ६. समता और सर्वोदय ___अहिंसा सर्वोदय की मूल भावना है। वह अपरिग्रह की भूमिका को मजबूत करती है अहिंसा समत्व पर प्रतिष्ठित हैं मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावों का अनुवर्तन, समता और अपरिग्रह का अनुचिन्तन, तप और अनेकान्त का अनुग्रहण तथा संयम और सच्चरित्र का अनुसाधन अहिंसा का प्रमुख रूप है। उसकी पुनीत प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र पर अवलंबित है। इसी चरित्र को धर्म कहा गया है। यही धर्म सम है। यह समत्व राग-द्वेषादिक विकारों के विनष्ट होने पर उत्पन्न होने वाला
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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