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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
बनाना चाहा, पर वह किसी भी तरह वेश्या नहीं हुई । तदनन्तर उस वेश्या ने सिंहराज नामक राजा के लिये वह अनन्तमती दिखलाई और वह राजा रात्रि में उसे बलपूर्वक सेवन करने के लिये उद्यत हुआ, परन्तु उसके व्रत के महात्म्य से नगर देवता ने राजा के ऊपर उपसर्ग किया, जिससे डरकर उसने उसे घर से निकाल दिया। खेद के कारण अनन्तमती रोती हुई बैठी थी कि कमलश्री नाम की आर्यिका ने यह श्राविका है; ऐसा मानकर बड़े सम्मान के साथ उसे अपने पास रख लिया । तदनन्तर अनन्तमती का शोक भुलाने के लिये प्रियदत्त सेठ बहुत से लोगों के साथ वन्दना भक्ति करता हुआ अयोध्या गया और अपने साले जिनदत्त सेठ के घर सन्ध्या के समय पहुँचा। वहां उसने रात्रि के समय पुत्री के हरण का समाचार कहा ।
प्रात:काल होने पर सेठ प्रियदत्तं तो वन्दना भक्ति करने के लिये गये। इधर जिनदत्त सेठ की स्त्री ने अत्यन्त गौरवशाली पाहुने के निमित्त उत्तम भोजन बनाने और घर में चौक पूरने के लिये कमलश्री आर्यिका की श्राविका को बुलवा लिया। वह श्राविका सब काम करके अपनी वसतिका में चली गई । वन्दना भक्ति करके जब प्रियदत्त सेठ वापिस आये तब चौक देखकर उन्हें अनन्तमती का स्मरण हो आया, उनके हृदय पर गहरी चोट लगी। गद् गद् वचनों से अश्रुपात करते हुए उन्होंने कहा कि जिसने यह चौक पूरा है उसे मुझे दिखलाओं । तदनन्तर वह श्राविका बुलाई गई। पिता और पुत्री का मेल होने पर जिनदत्त सेठ ने बहुत भारी उत्सव किया। अनन्तमती ने कहा कि पिताजी! अब मुझे तप दिला दो, मैंने एक ही भव में संसार की विचित्रता देख ली है । तदनन्तर कमलश्री आर्यिका के पास दीक्षा लेकर उसने बहुत काल तप किया। अन्त में संन्यासपूर्वक मरण कर उसकी आत्मा सहस्रार स्वर्ग में देव हुई।
(३) उद्दायन राजा की कथा
एक बार अपनी सभा में सम्यग्दर्शन के गुणों का वर्णन करते हुए सौधर्मेन्द्र ने वत्सदेश के रौरकपुर नगर के राजा उद्दायन महाराज के निर्विचिकित्सित गुण की बहुत प्रशंसा की। उसकी परीक्षा करने के लिये एक वासव नाम का देव आया उसने विक्रिया से एक ऐसे मुनि का रूप बनाया जिसका शरीर उदुम्बर कुष्ठ से गलित हो रहा था । उस मुनि ने विधिपूर्वक खड़े होकर उसी राजा उद्दायन के हाथ से दिया हुआ समस्त आहार और जल माया से ग्रहण किया। पश्चात् अत्यन्त दुर्गन्धित वमन कर दिया। दुर्गन्ध के भय से परिवार के सब लोग भाग गये, परन्तु राजा उद्दायन अपनी रानी प्रभावती के साथ मुनि की परिचर्या करता रहा। मुनि ने उन दोनों के ऊपर वमन कर दिया। हाय-हाय मेरे द्वारा विरुद्ध आहार दिया गया है। इस प्रकार अपनी निन्दा करते हुए राजा ने मुनि के अंगों का प्रक्षालन किया। अन्त में देव अपनी माया को समेट कर असली रूप में प्रकट हुआ और पहले का सब समाचार कहकर तथा राजा की प्रशंसा