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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (७२) आचार्य वसुनन्दि कर स्वर्ग चला गया। उद्दायन महाराज वर्धमान स्वामी के पाद मूल में तप ग्रहण कर मोक्ष गये और रानी प्रभावती तप के प्रभाव से ब्रह्मस्वर्ग में देव हुई। (४) रेवती रानी की कथा विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी सम्बन्धी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ अपने चन्द्रशेखर पुत्र के लिये राज्य देकर, परोपकार तथा वन्दना-भक्ति के लिये कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहाँ गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया। एक समय वह क्षुल्लक, वन्दना-भक्ति के लिये उत्तर मथुरा की ओर जाने लगा। जाते समय उसने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कुछ कहना है? भगवान् गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रतमुनि को वन्दना और वरुण राज की महारानी रेवती के लिये आशीर्वाद कहने के योग्य है। क्षुल्लक ने तीन बार पूछा फिर भी उन्होंने इतना ही कहा। तदनन्तर क्षुल्लक ने कहा कि वहाँ ग्यारह अंग के धारक भव्य सेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते है। उनका आप नाम भी नहीं लेते है। उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा गया। वहाँ जाकर उसने सुव्रत मुनि के लिए भट्टार की वन्दना कही। सुव्रत मुनि ने परम वात्सल्य भाव दिखलाया। उसे देखकर वह भव्य सेन की वसतिका में गया। क्षुल्लक के वहाँ पहुँचने पर भव्यसेन ने उससे सम्भाषण भी नहीं किया। भव्य सेन, शौच के लिये बाहर जा रहे थे, सो क्षुल्लक उनका कमण्डलु लेकर उनके साथ बाह्य भूमि में गया और विक्रिया से उसने आगे ऐसा मार्ग दिखाया जो कि हरे-हरे कोमल तृणों के अंकुरों से आच्छादित था। उस मार्ग को देखकर क्षुल्लक ने कहा भी कि आगम में ये सब जीव कहे गये है। भव्यसेन आगम पर अरुचि-अश्रद्धा दिखाते हुए तृणों पर चले गये। क्षुल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु का पानी सुखा दिया। जब शद्धि का समय आया तब कमण्डल में पानी नहीं है तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती है, यह देख वे आश्चर्य में पड़ गये। तदनन्तर उन्होंने स्वच्छ सरोवर में उत्तम मिट्टी से शुद्धि की। इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भव्यसेन का अभव्यसेन नाम रख दिया तदनन्तर दूसरे दिन पूर्व दिशा में पद्मासन . पर स्थित चार मुखों से सहित यज्ञोपवीत आदि से युक्त तथा देव और दानवों से वन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया। राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहाँ गये, परन्तु रेवती रानी लोगों से प्रेरित होने पर भी नहीं गई। वह यही कहती रही कि यह ब्रह्म नाम का देव कौन है? इसी प्रकार दक्षिण दिशा में गरुड़ के ऊपर आरूढ़ चार भुजाओं से सहित तथा गदा, शंख आदि के धारक नारायण का रूप दिखाया। पश्चिम दिशा में बैल पर आरुढ़ तथा अर्धचन्द्र जटा-जूट, पार्वती और गणों से सहित शंकर का रूप दिखाया उत्तर दिशा में समवसरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों से सहित सुर-नर, विद्याधर और मुनियों के समूह से वन्द्यमान पर्यंकासन से स्थित तीर्थङ्कर देव का रूप दिखाया। वहाँ सब लोग गये, परन्तु रेवती रानी लोगों के द्वारा प्रेरणा की जाने पर भी नहीं गई। वह
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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