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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७३) आचार्य सुन्द यही कहती रही कि नारायण नौ ही होते है। रूद्र ग्यारह ही होते है और तीर्थङ्कर चौबीस होते है ऐसा जिनागम में कहा गया है। और वे सब हो चुके है। यह तो कोई मायावी है। दूसरे दिन चर्या के समय उसने एक ऐसे क्षुल्लक का रूप बनाया, जिसका शरीर बीमारी से क्षीण हो गया था। वह रेवती रानी के घर के समीपवर्ती मार्ग में मायामयी मूर्च्छा से पड़ रहा। रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना तब वह भक्तिपूर्वक उठाकर ले गई उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत हुई, उस क्षुल्लक ने सब आहार कर दुर्गन्ध से युक्त वमन कर दिया। रानी ने वमन दूर कर कहा हाय मैंने प्रकृति विरुद्ध अपश्य आहार दिया। रेवती रानी के उक्त वचन सुनकर क्षुल्लक ने सन्तोष से सब माया को संकोच कर उसे गुप्ताचार्य को परोक्ष वन्दना कराकर उनका आशीर्वाद कहा और लोगों के बीच उसकी अमूढ़ दृष्टिता की खूब प्रशंसा की। यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। राजा वरुण शिवकीर्ति पुत्र के लिये राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई। (५) जिनेन्द्र भक्त सेठ की कथा सुराष्ट्र देश के पाटलिपुत्र नगर में राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उन दोनों के सुवीर नाम का पुत्र था। सुवीर सप्त व्यसनों से अभिभूत था तथा ऐसे ही चोर पुरुष उसकी सेवा करते थे। उसने कानो कान सुना कि पूर्व गौड़ देश की ताम्रलिप्त नगरी में जिनेन्द्र भक्त सेठ के सतखण्डा महल के ऊपर अनेक रक्षकों से सहित श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के ऊपर जो छत्रत्रय लगा है। उस पर एक विशेष प्रकार का अमूल्य वैडूर्य मणि संलग्न है। लोभवश उस सुवीर ने अपने पुरुषों से पूछा कि क्या कोई उस मणि को लाने के लिये समर्थ है ? सूर्य नामक चोर ने गला फाड़कर कहा कि यह तो क्या है मैं इन्द्र के मुकुट का मणि भी ला सकता हूँ। इतना कहकर वह कपट से क्षुल्लक बन गया और अत्यधिक कायक्लेश से ग्राम तथा नगरी में क्षोभ करता हुआ क्रम से ताम्रलिप्त नगरी पहुँच गया। प्रशंसा से क्षोभ को प्राप्त हुए जिनेन्द्र भक्त सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दर्शन कर वन्दना कर तथा वार्तालाप कर उस क्षुल्लक को अपने घर ले आया। उसने पार्श्वनाथ देव के उसे दर्शन कराये और माया से न चाहते हुए भी उसे मणि का रक्षक बनाकर वही रख लिया। एक दिन क्षुल्लक से पूछकर सेठ समुद्र यात्रा के लिये चला और नगर से बाहर निकल कर ठहर गया । वह चोर क्षुल्लक घर के लोगों को सामान ले जाने में व्यग्र जानकर आधी रात के समय उस मणि को लेकर चलता बना। मणि के तेज से मार्ग में कोतवालों ने उसे देख लिया और पकड़ने के लिये उसका पीछा किया। कोतवालों से बचकर भागने में असमर्थ हुआ वह चोर क्षुल्लक सेठ की ही शरण में जाकर कहने लगा कि मेरी रक्षा करो, रक्षा करो। कोतवालों का कल-कल शब्द सुनकर तथा पूर्वापर विचार कर सेठ ने जान लिया कि यह चोर है, परन्तु धर्म का उपहास बचाने के लिये उसने कहा कि यह मेरे कहने से
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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