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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (७४) आचार्य वसुनन्दि ही रत्न लाया है, आप लोगों ने अच्छा नहीं किया, जो इस महा तपस्वी को चोर घोषित किया । तदनन्तर सेठ के वचनों को प्रमाण मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे रात्रि के समय निकाल दिया। इसी प्रकार अन्य सम्यग्दृष्टि को भी असमर्थ और अज्ञानी जनों से आये हुए धर्म के दोष का आच्छादन करना चाहिये । (६) वारिषेण की कथा मगध देश के राजगृह नगर में राजा श्रेणिक रहता था। उसकी रानी का नाम चेलिनी था। उन दोनों के वारिषेण नाम का पुत्र था। वारिषेण उत्तम श्रावक था । एक बार वह उपवास धारणकर चतुर्दशी की रात्रि में श्मशान में कायोत्सर्ग से खड़ा था। उसी दिन बगीचे में गई हुई मगध सुन्दरी नामक वेश्या ने श्रीकीर्ति सेठानी के द्वारा पहिना हुआ हार देखा। तदनन्तर उस हार को देखकर 'इस आभूषण के बिना मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है', ऐसा विचार कर वह शय्या पर पड़ी रही। उस वेश्या में आसक्त विद्युच्चोर जब रात्रि के समय उसके घर आया तब उसे शय्या पर पड़ी देख बोला कि हे प्रिये इस तरह क्यों पड़ी हो ? वेश्या ने कहा कि यदि श्रीकीर्ति सेठानी का हार मुझे देते हो तो मैं जीवित रहूँगी और तुम मेरे पति होओगे अन्यथा नहीं। वेश्या के यह वचन सुनकर तथा उसे आश्वासन देकर विद्युच्चोर आधी रात के समय श्रीकीर्ति सेठानी के घर गया और अपनी चतुराई से हार चुराकर बाहर निकल आया। हार के प्रकाश से यह चोर है, ऐसा जानकर गृह के रक्षकों तथा कोतवालों ने उसे पकड़ना चाहा। जब वह चोर भागने में असमर्थ हो गया तब वारिषेण कुमार के आगे उस हार को डालकर छिपकर बैठ गया। कोतवालों ने उस हार को वारिषेण के आगे पड़ा देखकर राजा श्रेणिक से कह दिया कि राजन्! वारिषेण चोर है । यह सुनकर राजा ने कहा कि इस मूर्ख का मस्तक छेदकर लाओ। चाण्डाल ने वारिषेण का मस्तक काटने के लिये जो तलवार चलाई वह उसके गले में फूलों की माला बन गई। उस अतिशय को सुन कर राजा श्रेणिक ने जाकर वारिषेण से क्षमा कराई। विद्युच्चोर ने अभयदान पाकर राजा से जब अपना सब वृत्तान्त कहा तब वह वारिषेण को घर ले जाने के लिये उद्यत हुआ। परन्तु वारिषेण ने कहा कि अब तो मैं पाणिपात्र में भोजन करूँगा अर्थात् दिगम्बर मुनि बनूँगा। तदनन्तर वह सूरसेन गुरु के समीप मुनि हो गया। एक समय वह मुनि राजगृह के समीपवर्ती पलाशकूट ग्राम में चर्या के लिये प्रविष्ट हुए। वह राजा श्रेणिक के अग्निभूति मंत्री के पुत्र पुष्पडालने उन्हें पड़गाहाचर्या कराने के बाद वह अपनी सोमिल्ला नामक स्त्री से पूछकर स्वामी का पुत्र तथा बाल्य काल का मित्र होने के कारण कुछ दूर तक भेजने के लिए वारिषेण मुनि के साथ चला गया। अपने लौटने के अभिप्राय से वह क्षीर वृक्ष आदि को दिखाता तथा बार-बार मुनि को वन्दना करता था। परन्तु मुनि हाथ पकड़ कर उसे साथ ले गये और धर्म का विशिष्ट उपदेश सुनाकर तथा वैराग्य उपजाकर उन्होंने उसे तप ग्रहण करा दिया। तप धारण करने पर भी वह सोमिल्ला स्त्री को नहीं
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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