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(८१) वासना से ग्रस्त रहता है जबकि सल्लेखनाव्रतधारी श्रावक अथवा साधु के मन में इस प्रकार का कोई वासनात्मक भाग नहीं रहता बल्कि वह शरीरादि की असमर्थता के कारण दैनिक कर्तव्यों में संभावित दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। वह ऐसे समय नि:कषाय होकर परिवार और परिचित व्यक्तियों से क्षमा-याचना करता है और मृत्यु-पर्यन्त महाव्रतों को धारण करने का संकल्प कर लेता है। तदर्थ सर्वप्रथम वह आत्मचिंतन करता है और उसके बाद क्रमश: खाद्य, और पेय पदार्थ छोड़कर उपवासपूर्वक देहत्याग करता है। वहाँ उसके मन में शरीर के प्रति कोई राग नहीं होता। अतः आत्महत्या का उसे कोई दोष लगने का प्रश्न ही नहीं उठता।
वस्तुत: आत्महत्या और सल्लेखना में अन्तर समझ लेना अत्यावश्यक है। आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई अतृप्त वासना काम करती है। आत्महत्या करने वाला अथवा किसी भौतिक सामग्री को प्राप्त करने के लिए अनशन करने वाला व्यक्ति विकार भावों से जकड़ा रहता है। उसका मन क्रोधादि भावों से उत्तप्त रहता है जबकि सल्लेखना करने वाले के मन में किसी प्रकार की वासना और उत्तेजना नहीं रहती। उसका मन इहलौकिक साधनों की प्राप्ति से हटकर पारलौकिक सुखों की प्राप्ति की ओर लगा रहता है। भावों की निर्मलता उसका साधन है। तज्जीवतच्छरीरवाद से हटकर शरीर और आत्मा की पृथकता पर विचार करते हुए शारीरिक परतन्त्रता से मुक्त होना उसका साध्य है। विवेक उसकी आधारशिला है। अत: आत्महत्या और सल्लेखना को पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता। ___समाधिमरण और सल्लेखना पर्यार्थक शब्द हैं। जैसा पहले हम कह चुके हैं, सल्लेखना का उद्देश्य यही है कि साधक संसार-परंपरा को दूर कर शाश्वत अभ्युदय शाश्वत अभ्युदव और निःश्रेयस् की प्राप्ति करे। साधक अपना शरीर बिलकुल अशक्त देखकर आभ्यन्तर और बाह्य, दोनों सल्लेखनायें करता है। आभ्यन्तर सल्लेखना कषायों की होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर की होती है। परिणामों की विशुद्धि जितनी अधिक होगी, सल्लेखना की उपयोगिता उतनी ही अधिक होगी। इसमें कषायों की क्षीणता नितान्त आवश्यक है। मरण के सन्निकट आ जाने पर तथा उपसर्ग या चारित्रिक विनाश की स्थिति आ जाने पर सल्लेखना धारण की जाती हैं मरणकाल में जो जीव जिस लेश्या से परिणत होता है उत्तरकाल में उसी लेश्या का धारक होता हैं चिरकाल से आराधित धर्म भी यदि अन्तकाल में छोड़ दिया जाये तो वह निष्फल हो जाता है।
और यदि मरणकाल में उस धर्म की आराधना की जाय तो वह चिरकाल के उपार्जित पापों का भी नाश कर देता है। साधक की साधना को सफल बनाने के लिए अन्य
१. सर्वार्थसिद्धि, ७.२२; राजवार्तिक, ७.२२, चारित्रसार, २२. २. भगवती आराधना, १९२२, सागारधर्मामृत, ८.१६; उपासकाध्ययन,८९७-८.