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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६३) आचार्य वसुनन्दि सातवीं पृथ्वी में विदिशाओं में नरक नहीं हैं। पूर्व दिशा में काल, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रौरव, उत्तर में महारौरव और मध्य में अप्रतिष्ठान नामक नरक हैं। ___ इन सातों पृथिवियों में कुछ नरक संख्यात लाख योजन विस्तार वाले और कुछ असंख्यात लाख योजन विस्तारवाले हैं। पांचवें भाग तो संख्यात योजन विस्तार वाले और ४ भाग असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। - इन्द्रक बिलों की गहराई प्रथम नरक में १ कोश और आगे क्रमश: आधा-आधा कोश बढ़ती हुई सातवें नरक में ४ कोश हो जाती है। श्रेणीबद्ध की गहराई अपने इन्द्रक की गहराई से तिहाई और अधिक है। प्रकीर्णकों की गहराई, श्रेणी और इन्द्रक दोनों की मिली हुई गहराई के बराबर है। ये सब नरक ऊँट आदि के समान अशुभ आकार वाले हैं। इनके शोचन-रोचन आदि भद्दे-भद्दे नाम हैं। सम्पूर्ण बिलों की संख्या ८४ (चौरासी) लाख है। सात पृथिवियों के नाम रयणप्पह-सक्करपह-बालुप्पह-पंक-धूम-तमभासा। तमतमपहा य पुढवीणं जाण अणुवत्थणामाई।। १७२।। अन्वयार्थ- (पुढवीणं) (उन) पृथिवियों के, (रयणप्पह) रत्नप्रभा, (सक्करपह) शर्कराप्रभा, (बालुप्पह) बालुकाप्रभा, (पंक-धूम-तमभासा य तमतमपहा) पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और तमस्तमप्रभा, (अणुवत्थणामाई) अन्वर्थ नाम, (जाण) जानना चाहिए। ___ अर्थ- उन सातों पृथ्वियों के क्रमश: रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा (तमस्तमप्रभा) ये अन्वर्थ अर्थात् सार्थक नाम जानना चाहिए। __व्याख्या–प्रस्तुत है श्रुतसागर सूरिकृत तत्त्वार्थवृत्ति (३/१/२३९) के आधार से उन पृथ्वियों के नामों का स्पष्टीकरण। सम्पूर्ण लोक को तीन भागों में विभक्त किया जाता है - १. अधोलोक, २. उर्ध्वलोक, ३. मध्यलोक। इन लोकों में अधोलोक में नारकी जीव रहते हैं। उनके निवासार्थ सात पृथ्वियाँ कही गई हैं - १. रत्नप्रभा-भूमि - जिसकी प्रभा चित्र आदि रत्नों की प्रभा के समान है वह रत्नप्रभा ___ भूमि है। यह पृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। इसके तीन भाग १. इ. अनुतृतथ., म. अणुवट्ट..
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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