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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (१६४) आचार्य वसुनन्दि हैं - १. खरभाग सोलह हजार योजन मोटा जहां पर भवनवासी एवं व्यन्तरदेव निवास करते हैं। २. पंक भाग चौरासी हजार योजन मोटा है इसमें भवनवासियों के असुरकुमार एवं व्यन्तरों के राक्षस जाति के देव रहते हैं। ३. अव्वहुल भाग अस्सीहजार योजन मोटा है इसमें प्रथम पृथ्वी के नारकी रहते हैं। २. शर्करा-प्रभा - जिसकी प्रभा शर्करा (शक्कर) के समान है वह शर्करा प्रभा भूमि है। यह पृथ्वी बत्तीसहजार योजन मोटी है। ३. बालुका-प्रभा – जिसकी प्रभा बालुका के समान है वह बालुकाप्रभा-भूमि है। यह पृथ्वी अट्ठाईसहजार योजन मोटी है। ४. पंक-प्रभा - जिसकी प्रभा कीचड़ के समान है वह पंकप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी चौबीसहजार योजन मोटी है। ५. धूम-प्रभा - जिसकी प्रभा धूम (धुआं) के समान हो वह धूमप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी बीसहजार योजन मोटी है। ६. तम-प्रभा - जिसकी प्रभा अन्धकार के समान है वह तमप्रभा भूमि है। यह पृथ्वी सोलहहजार योजन मोटी है। ७. महातम-प्रभा – जिसकी प्रभा महा (गाढ) अन्धकार के समान है वह महातम प्रभाभूमि है। यह आठहजार योजन मोटी है। इन भूमियों अथवा नरकों के दूसरे नाम क्रमश: घम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवा और माधवी भी है। . शङ्का– जीवों का नरकों में लगातार कितने बार जन्म सम्भव है? . __समाधान- पहली पृथिवी से निकला हुआ जीव यदि पाप के कारण अव्यवहत (निरन्तर) रूप से पहली पृथिवी में जावे तो सात बार तक जा सकता है। दूसरी से निकला दूसरी में छह बार, तीसरी से निकला तीसरी में पांच बार, चौथी से निकला चौथी में चार बार, पांचवी से निकला पांचवीं में तीन बार, छठवी से निकला छठवी में दो बार और सातवी पृथ्वी से निकला जीव सातवीं पृथ्वी में एक बार जा सकता है। शङ्का– यहाँ निरन्तर से क्या अर्थ लेना है? समाधान- निरन्तर से तात्पर्य है कि नरक से निकल कर वह पशु या मनुष्य होगा पुन: उस पर्याय से नरक चला जायेगा; क्योंकि नारकी जीव मरकर पर्यायान्तर के बिना नरकों में उत्पन्न नहीं होते। वे सीधे देवों और भोग भूमियां जीवों में भी उत्पन्न नहीं हो सकते हैं।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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