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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
(१६२)
आचार्य वसुनन्दि
अर्थ - अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं, उनमें श्रेणीबद्ध, इन्द्रक और प्रकीर्णक नाम के चौरासी लाख नरक हैं।
विशेषार्थ - अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं; उनमें श्रेणीबद्ध अर्थात् पंक्तिबद्ध, इन्द्रक अर्थात् प्रमुख (बीचोंबीच ) और प्रकीर्णक अर्थात् तारों की तरह इधर-उधर बिखरे हुए जैसे चौरासी लाख नरक हैं अर्थात् सात नरकों की सात पृथ्वियों में चौरासी लाख बिल हैं जिनमें नारकी रहते हैं।
सभी नरकों (पृथ्वियों) में ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर मध्य भाग में नरक हैं। वे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक के रूप में तीन भागों में विभाजित हैं। प्रथम पृथ्वी में १३ नरक प्रस्तार हैं और उनमें सीमन्तक, निरय, रौरव आदि १३ ही इन्द्रक (बिल) हैं। द्वितीय पृथ्वी में ११ नरक प्रस्तार और स्तनक, संस्तनक आदि ग्यारह इन्द्रक हैं। तृतीय पृथ्वी में ९ प्रस्तार हैं और तप्त, त्रस्त आदि नौ इन्द्रक हैं। चतुर्थ पृथ्वी में ७ नरक प्रस्तार हैं और आय मार आदि सात इन्द्रक हैं। पञ्चम पृथ्वी
५ नरक प्रस्तार हैं और तम, भ्रम आदि पांच इन्द्रक हैं । छट्ठम पृथ्वी में ३ नरक प्रस्तार हैं और हिम, वर्दल और ललक ये तीन ही इन्द्रक हैं। सप्तम पृथ्वी में एक प्रस्तार और एक ही अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक है।
सीमन्तक इन्द्रक नरक की चारों दिशाओं और चार विदिशाओं में क्रमबद्ध नरक हैं तथा मध्य में प्रकीर्णक हैं। दिशाओं की श्रेणी में ४९ - ४९ नरक हैं तथा विदिशाओं की श्रेणी में ४८- ४८ । निरय आदि शेष इन्द्रकों में दिशा और विदिशा के श्रेणीबद्ध नरकों की संख्या क्रम से एक-एक कम होती गई है। अन्तिम अप्रतिष्ठान नामक इन्द्रक नरक सम्बन्धी प्रत्येक दिशा में एक-एक श्रेणीबद्ध नरक बचता है। विदिशाओं में कोई भी नरक नहीं बचता और न ही पुष्यप्रकीर्णक होते है। इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण के लिये तत्त्वार्थराजवार्तिक (अ०३, सूत्र २) के आधार से तैयार की गई तालिका प्रस्तुत है
पृथिवी
१
२
m x 5 w 9
३
४
५
७
इन्द्रक श्रेणीबद्ध
पुष्यप्रकीर्णक
योग
१३
४४२०
२९९५५६७
३००००००
११
२६८४ २४९७३०५
२५०००००
१४७६ १४९८५१५ १५०००००
७०० ९९९२९३ १००००००
२६०
२९९७३५
३०००००
६०
९९९३२ ९९९९५
४
९६०४
७
5
४९
X
८३९०३४७ ८४०००००