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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार जूँ, जूएँ मक्खी लिक, लीख बाल (३१०) जलोदर वमन कोड़ स्वरभंग आचार्य वसुनन्दि बिच्छु, छिपकली मरण रात्रि भोजन का त्याग करने से प्राणी संयम पलता है। अहिंसा व्रत विशुद्ध होता है, करुणा भाव का संरक्षण होता है तथा स्वास्थ्य लाभ होता है - अतः बुद्धिमानों को रात्रि भोजन का पूर्णतया त्याग करना चाहिये । रत्नमाला में कहा है छत्र चामर वाजीभ रथ पदाति संयुताः । विराजन्ते नरा यत्र ते रात्र्याहार वर्जिन: ।। ४९ । । ग्रन्थकार कहते हैं कि छत्र-चंवर - घोड़ा - हाथी - रथ और पदातियों से युक्त नर (राजा) जहाँ कहीं भी दिखाई पड़ते हैं, ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रिभोजन का त्याग किया था। उस त्याग से उपार्जित हुए पुण्य को वे भोग रहे हैं । । ३१५ ।। दीपक के प्रकाश में भी जीव भोजन में गिरते हैं दीउज्जोयं जड़ कुणइ तह वि चउरिंदिया अपरिमाणा । णिवडंति दिट्ठिराएण मोहिया असणमज्झम्मि । । ३१.६ । । -- अन्वमार्थ – (जइ) यदि, (दीउज्जोयं कुणइ) दीपक जलाया जाता है, (तह वि) तो भी, (अपरिमाणा चउरिंदिया) अगणित चतुरिन्द्रिय जीव (दिट्ठिराएण मोहिया) दृष्टिराग से मोहित होकर, (असणमज्झम्मि) भोजन के मध्य में, (णिवडंति) गिरते हैं। अर्थ — यदि दीपक जलाया जाता है, तो भी पतंगे आदि अगणित चतुरिन्द्रिय जीव दृष्टिराग से मोहित होकर भोजन के मध्य में गिरते हैं । । विशेषार्थ -- यदि प्रकाश के लिए दीपक भी जला लिया जाय तो उसके प्रकाश को देखकर चक्षु इन्द्रिय के वशीभूत होकर बहुत से कीट-पतंगे आ जाते हैं। बहुत से तो भोजन में गिर जाते हैं, बहुत से जल करके मर जाते हैं और बहुत से हाथ-पैर आदि चलाने से मर जाते हैं, अत: भयंकर हिंसा का भी दोष लगता है और शारीरिक बीमारियाँ भी होती हैं। ऐसे ही मनुष्य अधिक मात्रा में रोगी पाये जाते हैं जो रात्रीभोजी अथवा
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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