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विसुनन्दि-श्रावकाचार (३११)
आचार्य वसुनन्दि व्यसनी हों। जैनाचार-श्रावकाचार की पद्धति के अनुसार चलने वाला और विवेक से काम करने वाला श्रावक कभी भी भयंकर रोगों का शिकार नहीं होता है। प्रत्येक श्रावक को रात्रि में चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना चाहिए। यदि कोई श्रावक ऐसा नहीं कर सकता है, तो उसे अपनी शक्ति एवं संयम की अपेक्षा खाद्य, स्वाद्य, लेह्य आदि का त्याग अवश्य करना चाहिए।
रात्रि भोजन त्याग के सम्बन्ध में प्रस्तुत है कथानक 'पथिक' का एक अंश
सूर्य तो पहले ही अस्त हो चुका था। अब अनुराग, विराग को कमरे से निकालकर, होटल के उस भाग में ले गया। जहाँ कि नाना प्रकार की भोजन सामग्री सजी हुई थी। वह एक बहुत बड़ा हाल था। जमीन पर कालीन बिछी हुई थी। चारों ओर रोशनी जगमग-जगमग कर रही थी। होटल के एक भाग में विभिन्न प्रकार के खाद्य व्यंजन सजे हुए थे और पास ही मादक पेय पदार्थों को भी बड़े ढंग से सजाया गया था।
वह जाकर एक केबिन के अंदर पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए।
अनुराग ने एक बेरे को बुलाते हुए कहा- दो थालियाँ लगाकर लाओ। विराग ने टोकते हुए कहा- दो नहीं एक ही लाना।
- क्यों? ...... अनुराग बोला। . – इसलिए कि मैं न तो रात में भोजन करता हूँ और ना ही होटल की कोई भी वस्तु खाता-पीता हूँ।..... विराग बोला।
- ऐसा क्यों?
- ऐसा. इसलिए कि रात्रि भोजन करने से प्रथम तो असंख्यात जीवों की हिंसा का पाप लगता है, और दूसरी बात है, कि स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है।
- किसने देखा कि जीव हिंसा होती है और रही स्वास्थ्य की बात, तो डॉक्टरों की क्या कमी है।
- डॉक्टरों की भी कमी नहीं है और ना ही रुपयों की कमी है, लेकिन ऐसा कौन सा मूर्ख होगा कि जो रोगों को स्वयं आमन्त्रण देगा। और जो तुमने कहा ना, कि किसने देखा हिंसा होती है वह भगवान तो देख ही रहे हैं। हमें भी साक्षात् भोजन में मच्छर, कीड़े गिरते हुए दिखते हैं और कई बार भोजन में बड़े-बड़े कीड़े भी निकल आते हैं।
- एकाध पड़ जाता होगा, तो क्या हुआ? - - एकाध नहीं पड़ जाता, उसमें दिखने वाले तो सैकड़ों पड़ ही जाते हैं, न दिखने वालों की तो संख्या नहीं है। तुम्हें मालूम होगा कि सूर्य के अभाव में जीवों