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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (३१२) आचार्य वसुनन्दि की उत्पत्ति ज्यादा होती है। सूर्य के रहते उससे निकलने वाली इन्फ्रारेड और अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण इन जीवों का उत्पादन दिन में अत्यल्प होता है और रात्रि में अत्यधिक.....। __ - क्या? यार तुम भी बुजुर्गों जैसी बातें करते हो, छोड़ों इन रुढ़ियों को, यह तो तब की बात है, जब प्रकाश नहीं होता था अथवा कम होता था?
- अनुराग! यह तब की बात नहीं, अब की बात है। ऐसा नहीं है कि पहले प्रकाश नहीं होता था आज के प्रकाश से तेज होता था मणियों का प्रकाश लेकिन रात्रि भोजन कोई नहीं करता था, मालूम है रात्रि भोजन करना मांस सेवन करने जैसा है और पानी पीना....खून जैसा।
रात्रिभोजी संसार में भटकता है एयइरिसमाहारं भुंजतो आदणासमिह लोए। पाउणइ परभवम्मि चउगइ संसार दुक्खाई।। ३१७।।
अन्वयार्थ– (एयइरिसमाहारं भुजंतो) इस प्रकार के आहार को खाता हुआ (मनुष्य), (इह लोए) इस लोक में, (आदणासम्) आत्मा का नाश करता है (और), (परभवम्मि) परभव में, (चउगइ संसारदुक्खाई) चतुर्गति रूप संसार के दुःखों को, (पाउणइ) प्राप्त करता है।
अर्थ- इस प्रकार के कीट-पतंग युक्त आहार को खाने वाला पुरुष इस लोक में अपनी आत्मा का या अपने आपका नाश करता है, और परभव में चतुर्गतिरूप संसार के दुःखों को पाता है।।
व्याख्या- जो मनुष्य रात्रि भोजन करता है, वह अपनी आत्मा का नाश करता है उसे भयंकर कर्मों का बंध होता है। इस भव में तो वह शरीर आदि में रोगों के बाहुल्य से दुःखी होता ही है, किन्तु परलोक में इससे भी भयंकर चार-गतियों में भ्रमण रूप दुःखों को प्राप्त करता है। महाभारत के ज्ञान पर्व अ० ७० श्लोक २०३ में कहा है
उलूकाकाकमार्जारगृद्ध शंबरशूकराः।
अहिवृश्चिकगोधाश्च, जायन्ते रात्रि भोजनात्।। अर्थ- रात्रि के समय भोजन करने वाला मनुष्य मरकर इस पाप के फल से उल्लू, कौआ, बिलाव, गीध, शंबर, सुअर, सांप, बिच्छू, गुहा आदि निकृष्ट जीवों में जन्म लेता है।