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(वसुनन्दि-श्रावकाचार
आचार्य वसुनन्दि है, परन्तु उसको जान सकता है, उसके ऊपर अमल कर सकता है और उसका प्रचारप्रसार कर सकता है इसलिये जैनधर्म, हिन्दू धर्म या बौद्धधर्म की शाखा नहीं है।।१९।।
काल द्रव्य के भेद परमत्यो ववहारो दुविहो कालो जिणेहि पण्णत्तो। लोयायास-पएसट्ठियाणवो मुक्खकालस्स।।२०।। गोणसमयस्स' एए कारणभूया जिणेहि णिट्ठिा। .. तीदाणागदभूतो ववहारो णंत समओ य।।२१।।
(युगलं). अन्वयार्थ- (जिणेहि) जिनेन्द्र भगवान्, (कालो) काल द्रव्य, (दुविहो) दो. प्रकार (का), (पण्णत्तो) कहा है; (परमार्थ काल और व्यवहार काल)। (मुक्खकालस्स) मुख्य काल के, (अणवो) अणु, (लोयायासपएसट्ठिय) लोंकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हैं। (एए) इन (कालाणुओं) को, (गोणसमयस्स). व्यवहार काल का, (कारणभूया) कारणभूत, (जिणेहि णिहिट्ठा) जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है, (य) और (ववहारो) व्यवहार, (तीदाणागदभूतो य) अतीत और अनागत स्वरूप, (णंतसमओ) अनन्त समय वाला कहा है।
अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् ने कालद्रव्य को दो प्रकार का कहा है-- परमार्थकाल और व्यवहारकाल। मुख्यकाल के अणु लोकाकाश के प्रदेशों पर स्थित हैं। इन कालाणुओं को व्यवहारकाल का कारणभूत जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है। व्यवहारकाल अतीत और अनागत स्वरूप अनन्त समय वाला कहा गया है।
व्याख्या- यहाँ पर काल द्रव्य के मुख्य रूप से दो भेद बताये हैं - १. परमार्थ काल और २. व्यवहार काल। परमार्थ काल के सम्बन्ध में द्रव्यसंग्रह में कहा है -
लोयायास पदेसे, एक्केके जे ठिया हु इक्केका ।
रयणाणं रासीमिव ते कालाणु असंख दव्वाणि ।। अर्थात् लोकाकाश के प्रदेशों पर जो एक-एक कालाणु प्रत्येक प्रदेश पर विद्यमान है, वह रत्नों की राशि के समान है और वैसे असंख्यात द्रव्य है। .
व्यवहार काल- समय, निमिष, घड़ी, दिन, माह, वर्ष आदि को व्यवहार काल कहते हैं। जब एक पुद्गल का परमाणु एक आकाश प्रदेश से निकटवर्ती आकाश प्रदेश पर मन्दगति से उल्लंघ कर जाता है तब समय नाम का सबसे सूक्ष्म काल प्रकट होता
१. व्यवहारकालस्य.