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________________ | वसुनन्दि-श्रावकाचार (३५) आचार्य वसनन्दि) रात, ऋतु, अयन, घड़ी, मिनट आदि जो व्यवहार होता है उसको व्यवहार काल कहते हैं। अढ़ाई द्वीप में सूर्य, चन्द्र के गमन के कारण व्यवहार काल है। स्वर्ग-नरक में व्यवहार काल नहीं होने पर भी यहाँ की अपेक्षा वहाँ का व्यवहार चलता है, परन्तु निश्चय काल स्वर्ग, नरक आदि सम्पूर्ण लोकाकाश में भरा पड़ा है। प्रत्येक द्रव्य में जो उत्पाद-व्यय आदि शुद्ध परिणमन होता है उसके लिये भी काल द्रव्य चाहिए। काल द्रव्य के अभाव से परिणमन का अभाव हो जायेगा जिससे प्रत्येक द्रव्य कूटस्थ हो जायेगा अर्थात् अपरिवर्तनशील हो जायेगा। कूटस्थ के कारण कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा। कुछ दार्शनिक केवल व्यवहार काल को मानते है। निश्चय काल के अभाव से व्यवहार काल भी नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु प्रतिपक्ष सहित होती है अर्थात् व्यवहार का प्रतिपक्ष निश्चय भी होना चाहिये। वर्तमान वैज्ञानिक इसको (Time substances).कहते हैं। विश्व संरचना के लिये जीव का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। जीव ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, प्रभु है, विभु है। जीव बिना समस्त विश्व श्मसान के समान सन्नाटा चैतन्य रहित है। द्वितीय महत्त्वपूर्ण भूमिका पुद्गल द्रव्य की है। विश्व की समस्त भौतिक संरचना पुद्गल से होती है। विश्व को गृह मानने से गृह का स्वामी जीव है एवं गृह का निर्माण पुद्गल से होता है। धर्म द्रव्य पथिक के लिये मार्ग है तो अधर्म द्रव्य पथिक के लिये स्टेशन है। काल पुरातन को मिटाकर नवीनीकरण का सूत्रधार है तो आकाश सबको विश्राम देने के लिये मदद करता है। इस प्रकार विश्व के लिये ६ द्रव्य परस्पर सहयोगी बनकर रहते हैं। विश्व शाश्वतिक होने के कारण विश्व में स्थित सम्पूर्ण द्रव्य भी शाश्वतिक है। उनमें परस्पर सहकार से परिणमन होता रहता है। जैनधर्म स्वाभाविक विश्व एवं द्रव्यों को मानता है एवं जैनधर्म वस्तु स्वभाव धर्म होने के कारण जैसे विश्व अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं अनादि अनन्त है उसी प्रकार जैनधर्म भी अकृत्रिम, स्वाभाविक एवं अनादि निधन है। ऐतिहासिक शोध के अभाव से कुछ वर्ष पूर्व कुछ ऐतिहासिक विद्वान् एवं दार्शनिक विद्वान् जैनधर्म को अर्वाचीन मानते थे। कोई जैनधर्म को हिन्दू धर्म की शाखा, कोई बौद्ध धर्म की शाखा मानते थे, कोई जैनधर्म के संस्थापक महावीर या पार्श्वनाथ भगवान को अथवा प्राचीन सिद्ध करने के लिये आदिनाथ भगवान् को मानते थे, परन्तु जैनधर्म का संस्थापक कोई नहीं हो सकता है, क्योंकि जैनधर्म एक प्राकृतिक धर्म है। तीर्थङ्कर गणधर, आचार्य आदि केवल धर्म प्रचारक है। अभी तक अनन्त २४ तीर्थङ्कर हो गये है और भविष्य में अनन्त २४ तीर्थङ्कर प्रचारक होंगे। जैसे- आकाश को कोई तैयार नहीं कर सकता है; किन्तु आकाश के विषय में जान सकता है, पुस्तक लिख सकता है उसके बारे में व्याख्यान दे सकता है उसी प्रकार जैनधर्म का संस्थापक नहीं कर सकता
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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