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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (३४)
आचार्य वसुनन्दि) स्व-पर को अवकाश (स्थान) देना इसका धर्म है।
__ आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी सर्वव्यापी सबसे बड़ा द्रव्य है। अन्न पगाल आदि पांच द्रव्य इस आकाश के जिस मध्य भाग में रहते हैं उसे लोकाकाश (विश्व) कहते है। लोकाकाश केवल असंख्यात प्रदेशी है। आकाश अमूर्तिक होने के कारण इसका भाग (टुकड़ा) नहीं हो सकता है तो भी जहाँ पर अन्य-अन्य द्रव्य पाये जाते है उसको लोकाकाश तथा शेष भाग को अलोकाकाश व्यवहार चलाने के लिये कल्पित कियां गया है। आकाश (Sky) अन्य द्रव्य से रहित एक शून्य (खोखलापन) नहीं है, परन्तु वह स्वयं अस्तित्व, वस्तुत्व, अमूर्त आदि अनन्त गुण सहित एक वास्तविक द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य के रहने के लिये यह द्रव्य सहायक होता है। इसके अभाव से द्रव्य का. अस्तित्व असम्भव हो जाता है। कुछ दर्शन आकाश को मानते है, कुछ इसको नहीं मानते है, विज्ञान अभी जिस प्रकार जैनधर्म में वर्णन है उसी प्रकार मानता है। ::
लोकाकाश के तीन भेद है - ऊर्ध्वलोक (स्वर्गलोक), मध्य लोक (जिसमें भारत, एशिया, पृथ्वी, जम्बूद्वीप, लवण, समुद्र आदि असंख्यात द्वीप समुद्र है), अधोलोक (नरक लोक)। आकाश में पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, गृह, नक्षत्र, निहारिका आदि रहते है।
काल द्रव्य- वर्तना अर्थात् परिवर्तन लक्षण वाले द्रव्य को काल कहते हैं। जीवादि द्रव्य अपनी नवीन पर्याय के उत्पन्न करने में स्वयं प्रवृत्त होते हैं तो भी वह बाह्य सहकारी कारण के बिना नहीं हो सकता। इसलिये उसे प्रवर्त्ताने वाला काल है। यही 'वर्तना लक्षण' काल द्रव्य का उपकार है। वर्तना के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसार में कहा गया है -
अन्तीतैकसमया प्रति द्रव्य विपर्ययम्।
अनुभूति: स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना।।४१।। । अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के एक-एक समयवर्ती परिणमन में जो स्वसत्ता की अनुभूति होती है उसे वर्तना कहते हैं।
कालद्रव्य अमूर्तिक, नित्य, शुद्ध एवं लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में स्वतन्त्र-स्वतन्त्र अवस्थित है। काल द्रव्य स्वयं के परिणमन के लिये एवं जीव- पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश के परिणमन के लिये निमित्त सहायक होता है। काल दो प्रकार के है - (१) निश्चय काल, (२) व्यवहार काल।
(१) निश्चय काल - रत्नराशि के समान स्वतन्त्र रूप से लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में स्थित होने वाले असंख्यात कालाणु निश्चय काल द्रव्य है।
(२) व्यवहार काल - सूर्य, चन्द्र आदि के गमन के कारण जो दिन,