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वसुनन्दि-श्रावकाचार (३३)
आचार्य वसुनन्दि जिस प्रकार रेल स्वशक्ति से गमन करते हए गमन करने के लिये रेल की पटरी की परम आवश्यकता होती है बिना रेल की पटरी के बिना रेल नहीं चल सकती है उसी प्रकार धर्म द्रव्य गति क्रिया के लिये नितान्त आवश्यक है। विश्व की समस्त स्थानान्तरित रूप क्रिया (एक स्थान से दूसरे स्थान के लिये गमन) बिना धर्म द्रव्य की सहायता से नहीं हो सकता है।
विश्व की समस्त क्रियायें धर्म द्रव्य की सहायता के बिना तीन काल में भी सम्भव . नहीं है। यहाँ तक कि श्वासोच्छ्वास के लिये, रक्त संचालन के लिये, पलक झपकने
और अंग-प्रत्यंग संकोच-विस्तार (फैलाना) के लिये, तार-बेतार के माध्यम से शब्द भेजने के लिये, रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि में संवाद एवं चित्र भेजने के लिये, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि के गमनं के लिये धर्म द्रव्य की सहायता नितान्त आवश्यक है। धर्मद्रव्य के अभाव में किसी प्रकार की भी क्रियायें सम्भव नहीं हैं। वैज्ञानिकों ने एक 'ईथर' (Ethor) नाम के पदार्थ की खोज की है जिसे हम धर्म द्रव्य के समकक्ष मान सकते हैं। यहाँ धर्म द्रव्य से तात्पर्य पुण्य कार्यों से नहीं हैं।
___ अधर्म द्रव्य- गति शक्ति के समान ही जीव-पुद्गल में स्थिति शक्ति भी है फिर भी ठहरने में जो बाह्य निमित्त उदासीन रूप से सहायक बनता है, उसे अधर्म द्रव्य कहते है। जैसे— पथिक के लिये छाया, रेलगाड़ी के लिए पटरी, बैठने के लिये कुर्सी, पाटा, फर्श, जमीन आदि। .
अधर्म द्रव्य के अभाव में स्थिर क्रिया नहीं हो सकती है। इसके अभाव से विश्व के सम्पूर्ण जीव एवं पुद्गल अनिश्चित एवं अव्यवस्थित रूप से सर्वदा चलायमान ही रहेंगे। बैठने की इच्छा होने पर भी बैठ नहीं सकेंगे, गाड़ी रोकने पर भी न रुकेगी, प्रत्येक व्यक्ति-वस्तु यत्र-तत्र घूमती रहेगी। ..
- आधुनिक विज्ञान की अपेक्षा जो केन्द्राकर्षण शक्ति (Gravitational force) है उसके साथ अधर्म द्रव्य की सादृश्यता पाई जाती है। यहाँ अधर्म से तात्पर्य पाप कार्यों से नहीं है। ___ आकाश द्रव्य- जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म एवं काल द्रव्य को अवकाश देता है अथवा जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश (रहने का स्थान) देने वाला है वह आकाश द्रव्य कहलाता है। अवकाश का तात्पर्य स्थान देने से है छुट्टी से नहीं।
आकाश द्रव्य के दो भेद हैं – लोकाकाश और अलोकाकाश। जिस आकाश प्रदेश में जीव आदि द्रव्य रहते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। उसको छोड़कर अन्य अवशेष आकाश मात्र को अलोकाकाश कहते हैं।
आकाश द्रव्य अमूर्तिक है, नित्य शुद्ध है, सर्वव्यापी है, सबसे बड़ा द्रव्य है,