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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार (३२) स्थूल के लिये बादर शब्द का भी प्रयोग होता है। आचार्य वसुनन्दि अरूपी अजीव द्रव्य चडविहमरूविदव्वं धम्माधम्मंवराणि कालो य। गइ - ठाणुग्गहण - लक्खणाणि तह वट्टण' गुणो य । । १९ । । अन्वयार्थ – (धम्माधमंवराणि य कालो) धर्म, अधर्म, आकाश और काल (ये) (चडविह) चार प्रकार के, (अरूवि - दव्यं) अरूपी द्रव्य हैं। (इनमें आदि के तीन), (गइ - ठाण य उग्गहण लक्खणाणि) गति, स्थिति और अवगाहन लक्षण वाले हैं, (तह) तथा, (काल), (वट्टण गुणो) वर्तना गुण वाला है। - अर्थ — चार अजीव द्रव्य अरूपी (अमूर्तिक) हैं — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल । क्रमशः गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना ये इनके लक्षण हैं। व्याख्या— इन चारों द्रव्यों में किसी भी प्रकार का रूप, रस, गन्ध अथवा स्पर्श नहीं पाया जाता है, अत: इन्हें अरूपी या अमूर्तिक कहते हैं। धर्मद्रव्य (धर्मास्तिकाय)— जीव और पुद्गल गति शक्तियुक्त है फिर भी गति करने के लिये जो बाह्य निमित्त उदासीन रूप से कारण बनता है, उसे धर्म द्रव्य कहते हैं। जैसे - स्व शक्ति से गमन करती हुई मछली के लिये पानी, पानी के बिना वह चल नहीं सकती। धर्म द्रव्य अमूर्तिक है। नित्य शुद्ध है, लोकाकाश प्रमाण है। गति परिणित जीव एवं पुद्गलों को गमन करने में उदासीन निमित्त होता है । विश्व में जीव और पुद्गल गमनागमन रूप क्रिया करते हैं उस गमनागमन क्रिया के लिये एक माध्यम चाहिये। उस माध्यम रूप द्रव्य को धर्म द्रव्य कहते हैं। यहाँ धर्मद्रव्य का अर्थ पुण्य रूप क्रिया या आचरण नहीं है, परन्तु यह एक पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त अभौतिक, अमूर्तिक, नित्य, शुद्ध, असंख्यात प्रदेशी वाला एक अखण्ड द्रव्य है। गइ परिणयाण धम्मो पुग्गल जीवाण गमण सहयारी | तोयं जह मच्छाणं अच्छंताणेव सो गेई || १७ द्रव्य संग्रह । । जैसे गमन करती हुई मछली को पानी गमन करने में सहायक होता है परन्तु - पानी जबर्दस्त मछली को गमन नहीं कराता है उसी प्रकार गमन करते हुए 'जीव- पुद्गल द्रव्य को उदासीन निमित्त बनता है । अ. ध. वत्तण.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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