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________________ (वसुनन्दि- श्रावकाचार (२५४) आचार्य वसुनन्दि भावार्थ— अत्यन्त-सरस-स्वादिष्ट, अति सुगन्धित और जो देखने मात्र से ही अभिलाषा अर्थात् पीने की इच्छा पैदा करते हैं, ऐसा इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले पेय पदार्थ मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष देते हैं। यह पेय इन्द्रियों को पुष्टिकारक होते हैं, मद अर्थात् गाढ़ मूर्च्छा को उत्पन्न नहीं करते है ।। २५२ ।। तूर्यांग - भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष तय-वितय-घणं सुसिरं वज्जं तूरंगपायवा दिंति । वरमउड- - कुंडलाइय- आभरणं भूसणदुमा वि ।। २५३ ।। अन्वयार्थ - (तूरंगपायवा) तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष, (य-वित घणं- सुसिरं) तत, वितत, घन (और) सुषिर स्वर वाले, ( वज्जं दिंति) बाजों को देते हैं, (भूसणदुमा) भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष, (वरमउड) उत्तम मुकुट, (कुंडलाइय) कुंडलादिक, (आभरणं वि) आभरण भी देते हैं। अर्थ — तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष तत, वितत, घृन और सुषिर स्वर वाले बाजों को देते हैं। भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट कुंडलादिक आभरण भी देते हैं। व्याख्या- तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष तत, वितत, घन और सुषिर स्वर वाले वीणा, पटु, पटह, मृदंग, ढोलक, तमूरा आदि कई प्रकार के वादित्रों को देते हैं। आचार्य शुभचन्द्र स्वामि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २०६ की टीका में कहते हैं ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । घनं तु कंसतालादि, सुषिरं वंशादिकं विदुः ।। - अर्थ — तत-वीणा वगैरह के शब्द को तत कहते हैं। ढोल, तबला वगैरह के शब्द को वितत कहते हैं। कांसे के बाजे के शब्दों को घन कहते है और बांसुरी वगैरह के शब्दों को सुषिर स्वर कहते हैं । भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम मुकुट, कुण्डल, हार, मेखला (करधौनी), मुकुट, केयूर, भालपट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र (प्रह्यसूत्र), नूपुर, मुद्रिकायें, अंगद, असि, छुरी, ग्रैवेय ओर कर्णपूर आदि सोलह जाति के आभरणों (आभूषणों) को प्रदान करते हैं ।। २५३ ।। ज्योतिरंग-गृहांग जाति के कल्पवृक्ष ससि सूरपयासाओ अहियपयासं कुणंति जोइदुमा | - णाणाविहपासाए दिंति सया गिहदुमा दिव्वे । । २५४ ।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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