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(वसुनन्दि- श्रावकाचार
(२५३)
भोगभूमि में कल्पवृक्ष सुख सामग्री देते हैं
तत्थवि दहप्पयारा कप्पदुमा दिति उत्तमे भोए । र्खेत' सहावेण सया पुव्वज्जि य पुण्ण सहियाणं । । २५० । ।
अन्वयार्थ— (तत्थ वि) वहाँ भी, (दहप्पयारा कप्पदुमा) दस प्रकार के कल्पवृक्ष, (खेत्तसहावेण) क्षेत्र स्वभाव से, (पुव्वज्जियपुण्णसहियाणं) पूर्वोपार्जित पुण्य- संयुक्त जीवों को, (सया) हमेशा, (उत्तमे भोए दिति) उत्तम भोग देते हैं।
भावार्थ — उन सभी उत्तम, मध्यम, जघन्य, प्रकार की भोगभूमियों में दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं। वे एकेन्द्रिय जीवों की वनस्पति जाति के नहीं अपितु पृथ्वीकायिक होते हैं। क्षेत्र जन्य स्वभाव से ही वे जिन जीवों ने पूर्व भव में पुण्य किया है ऐसे जीवों को उत्तम उत्तम प्रकार के भोग-उपभोग की सामग्री प्रदान करते हैं । । २५० ।।
दस प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम
मज्जंग - तूर- भूसण- जोइस - गिह- भायणांग- दीवंगा । वयंग-भोयगा मालंगा सुरतरु दसहा । । २५१ । ।
अन्वयार्थ — (मज्जंग) मद्यांग, (तूर) तूर्यांग, (भूसण) भूषणांग, (जोइस) ज्योतिरंग, (गिह) गृहांग, (भायणंग) भाजनांग, (दीवंगा) दीपांग, (वत्थंग) वस्त्रांग, (भोयणंगा) भोजनांग, (मालंगा) मालांग, (ये) (दसहा) दस प्रकार के, (सुरतरु) कल्पवृक्ष हैं।
आचार्य वसुनन्दि
भावार्थ - मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, वस्त्रांग, भोजनांग और मालांग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं । । २५१ । ।
मद्यांग कल्पवृक्ष
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अइसरसमइसुगंधं दिट्ठे ? चि य जं इंदिय बल पुट्ठियरं मज्जंगा
झ. ब. छित्त०, इ. छेत्त. .
३. झ० 'जं' इति पाठो नास्ति.
जणेइ अहिलासं ।
पाणयं
पाणयं दिति । । २५२ ।।
अन्वयार्थ— (अइसरसम्) अति- सरस, (अइसुगंधं) अति सुगन्धित, (य) और, (जं) जो, (दिडुं चिय) देखने मात्र से ही, (अहिलासं) अभिलाषा को, (जणेइ) पैदा करते हैं, (इंदिय - बलपुट्ठियरं ) इंद्रिय-बल पुष्टिकारक, (पाणयं) पानक, (मज्जंगा दिंति) मद्यांग वृक्ष देते हैं।
झ०प० दिट्ठवि.