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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०५)
आचार्य वसुनन्दि) ___ अन्वयार्थ- (धण-धण्ण-हिरण्य-कंचणाईणं) धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदि का, (ज) जो, (परिमाणं) परिमाण, (कीरइ) किया जाता है, (तं) वह, (पंचमवयं) पंचमव्रत, (उवासयज्झयणे) उपासकाध्ययन में, (णिट्ठिम्) कहा गया है।
अर्थ- धन, धान्य, हिरण्य, सुवर्ण आदि का जो परिमाण किया जाता है, वह पंचम अणुव्रत जानना चाहिए, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है।
व्याख्या- धन, धान्य, सोना-चाँदी, जमीन जायदाद आदि सभी वस्तुओं का जो प्रमाण करना है वही उपासकाध्ययन में अपरिग्रहाणुव्रत कहा गया है।
. उपासकाध्ययन का लक्षण करते हुए आचार्य शुभचन्द्र अंगपण्णति में लिखते हैं -
जत्थे यारह सद्धा दाणं पूयं च संहसेवं च। वयगुण शीलं किरिया तेसिं मंता वि मुच्चंति।।४७।।
अर्थ- जिस ग्रन्थ में श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का, श्रावक के व्रतों का, सम्यग्दर्शन की विशुद्धि का, दान, पूजा, संघसेवा, श्रावकों के व्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत रूप सात शीलों का, श्रावक की क्रियाओं का तथा उनके भेदों का अर्थात् धारण करने की विधि आदि.का वर्णन है। वह उपासकाध्ययनांग कहलाता है।
तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी परिग्रह का लक्षण लिखते हैं – “मर्छा . परिग्रहः'। –त०सू० ७/१७।
अर्थ- मूर्छा अर्थात् परवस्तुओं में ममत्वभाव ही परिग्रह है।
इन्हीं भावों को आचार्य समन्तभद्र, आ० अमृतचन्द्र, आ० सोमदेव, पण्डित आशाधर आदि भी पुष्ट करते हैं। रत्नमालाकार आचार्य शिवकोटि कहते हैं -
अतिकांक्षा हता येन ततस्तेन भवस्थितिः। हस्विता निश्चितावस्थ कैवल्य सुखसंगतिः ।।४४।।
अर्थ- जिसने आशा का नाश किया है, वह भवस्थिति को कम करता है तथा अवश्य ही केवलज्ञान व सुखादि की संगति को प्राप्त करता है।
परित: गृह्यति आत्मानमिति परिग्रहः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा को सर्वतोमुखेन जकड़ लेवे, वह परिग्रह है अथवा मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मूर्छा क्या है? आचार्य अकलंक देव लिखते हैं कि- बाह्याभ्यन्तरोपधिसंरक्षणादि व्याप्रतिमूर्छा।