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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२०४)
आचार्य वसुनन्दि सन्ध्येव क्षणरागिणी हृतजगा प्राणा भुत्जङ्गीव सो। कार्याकार्य विचार चारुमतिभिस्त्याज्या परस्त्री सदा ।।
(श्रावकाचार सारोद्धार, ३/२२७) अर्थ- कार्य-अकार्य का विचार करने वाले सुन्दर बद्धिशाली आर्य पुरुषों द्वारा ऐसी परस्त्री सदा त्यागने योग्य है, जो कि शोकरूप केश शिखा वाली, अग्नि के समान दाह को उत्पन्न करती है, नदी के समान नीच प्रिय है, उत्तरोत्तर उठती हुई धूमपंक्ति के समान कालिमा से व्याप्त है, बिजली की गर्जना के समान भय को देने वाली है, सन्ध्या के समान कुछ क्षणों की लालिमा वाली है और सर्पिणी के समान जगत् के प्राण हरण करने वाली है।
सम्पूर्ण दोषों की खान वह स्त्री कार्य और अकार्य का विचार करने में चतुर बुद्धिमानों द्वारा सदा ही छोड़ने योग्य है।
आ० पूज्यपाद लिखते हैं - परेषां योषितो दृष्ट्वा निजमातृसुतासमा: । कृत्वा स्वदार संतोषं, चतुर्थं तदणुव्रतं ।।पूज्यपाद श्राव०२४।।
अर्थ- दूसरों की स्त्रियों को अपनी माता, (बहिन) और पुत्री के समानं देखकर अपनी स्त्री में सन्तोष करना, यह चतुर्थ अणुव्रत है। कुछ भेद के साथ श्री सोमदेव पण्डित ने कहा है - . ,
बधूवित्तस्त्रियौ मुक्त्वा सर्वत्रान्यत्र तज्जने। . . माता स्वसा तनूजेति मतिर्ब्रह्मागृहाश्रमे।।सो०उपा०४०५।। अर्थ- स्वस्त्री और वित्तस्त्री को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों में माता, बहन, बेटी की भावना रखना गृहस्थ का ब्रह्माणुव्रत है। यह कथन सामान्य श्रावक की अपेक्षा से है। दूसरी प्रतिमा वाले को स्वदार सन्तोषी ही होना चाहिए।।११२।।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत का लक्षण जं परिमाणं कीरइ घण-धण्ण-हिरण्ण कंचणाईणं।
तं जाण' पंचमवयं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे।।२१३।। १. ब. जाणि. २. धनधान्यहिरण्यादिप्रमाणं यद्विधीयते।
ततोऽधिके च दातास्मिन् निवृत्तिः सोऽपरिग्रहः।।१३७।। गुणभू. श्रा. ।।