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वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२३) आचार्य वसुनन्दि
दानविधि-वर्णन
नवधा- भक्ति का नाम निर्देश पडिगह मुच्चट्ठाणं पादोदयमच्चणं च पणमं च। मण-वयण-कायसुद्धी एसणसुद्धि य दाण विही।। २२५।।
अन्वयार्थ– (पडिगहमुच्चट्ठाणं) प्रतिग्रह, उच्चस्थान देना, (पादोदयमच्वणं) पैर धोना, अर्चा करना, (पणम) प्रणाम करना, (मण-वयण-कायसुद्धी) मन, वचन, कायशुद्धि, (य) और, (एसणसुद्धी) भोजनशुद्धि, (यह), (दाणविही) दान की
विधि है।
अर्थ- प्रतिग्रह अर्थात् पड़िगाहना- सामने जाकर लेना, उच्च स्थान देना अर्थात् ऊंचे आसन पर बिठाना, पादोदक अर्थात् पैर धोना, अर्चा करना, प्रणाम करना, मन:शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और एषणा अर्थात् भोजन की शुद्धि, ये नौ प्रकार की दान की विधि हैं।
व्याख्या- मुनियों अथवा उत्तम पात्रों का प्रतिग्रहण करना, पड़गाहन करना अर्थात् उनके सामने जाकर उन्हें लेना, अपने घर या भोजनालय में लाकर उन्हें ऊंचे आसन पर विराजमान करना, उनके दोनों पैरों को धोना और गन्धोदक लेना। यहाँ पादोदक से भासित होता है कि पहले पज्यों के पांव धोवें तदनन्तर उस पादोदक को माथे से लगावें। अर्चा करना अर्थात् अष्ट द्रव्यादिक से पूजा करना, प्रणाम करना, मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और आहार जल शुद्धि, इसप्रकार दान की विधि नौ प्रकार की है। एषण शुद्धि और आहार शुद्धि एकार्थवाची है। ... सत्पात्रों को दान देते समय इन नौ विधियों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि एवं पं० आशाधर के साथ-साथ अन्य श्रावकचारकारों ने भी इन्हीं नौ विधियों अर्थात् नवधा भक्ति का उल्लेख किया है। नवधा भक्ति की विधि
पत्तं णियघरदारे दळूणण्णत्थ वा विमग्गित्ता। पडिगहणं कायव्वं णमोत्थु ठाहु त्ति भणिऊण ।। २२६।।
१. ध, पडिगह उच्चट्ठाणं. २. स्थापनोच्चासनपाद्यपूजाप्रणमनैस्तथा।
मनो वाक्कायशुद्ध्या वा शुद्धो दानविधि स्मृतः।।१५२ ।।गुणभू. श्रा. ।।