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________________ ( वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२२) आचार्य वसुनन्दि महापुराण (२०/१३६-१३७) के अनुसार नौ कोटियां इस प्रकार हैं- देय शुद्धि, उसके लिये आवश्यक दाता और पात्र की शुद्धि ये तीन। दाता की शुद्धि, उसके लिये आवश्यक देय और पात्र की शुद्धि ये तीन। पात्र शुद्धि, उसके लिए आवश्यक देय और दाता की शुद्धि। ये नौ शुद्धियां हैं। अर्थात् दान के मुख्य आश्रय तीन हैंदाता, पात्र और देय वस्तु। प्रत्येक की शुद्धि के साथ अन्य दो की शुद्धि भी आवश्यक है। इन नौ कोटियों से विशुद्ध अर्थात् पिण्ड शुद्धि में कहे गये दोषों के सम्पर्क से रहित दान का जो देने वाला है वह दाता है और उसके सात गुण प्रसिद्ध है। कहा भी है श्रद्धा शक्तिश्च भक्तिश्च विज्ञानं चाप्यलुब्धता। क्षमा त्यागश्च सप्तैते प्रोक्ता दान पतेर्गुणाः। महापु०,२०/८२।।.. अर्थ- श्रद्धा, शक्ति, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा, और त्याग यह दान देने वाले के सात गुण कहे हैं। सोमदेव के उपासकाध्ययन, अमितगति के श्रावकाचार एवं पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय आदि सभी ग्रन्थों में इन सात गुणों का उल्लेख प्राप्त होता है। आ० अमितगति ने तो सात गुणों के भेद से दाता के भी सात भेद कहे हैं भाक्तिकं तौष्टिकं श्राद्धं सविज्ञानमलोलुपम्। सात्त्विकं क्षमकं सन्तो दातारं सप्तधा विदुः ।।अमि० श्रा०,९/३।। अर्थ- जो धर्मात्मा की सेवा में स्वयं तत्पर रहता है, उसमें आलस्य नहीं करता है उस शान्त दाता को भाक्तिक कहते हैं। जिसको पहले दिये गये और वर्तमान में दिये जाने वाले दान से हर्षहै वह दाता तौष्टिक है। देय में आसक्ति न होना तुष्टि गुण है। साधुओं को दान देने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है। ऐसी जिसकी श्रद्धा है वह दाता श्राद्ध है अर्थात् श्रद्धा गुण से युक्त है। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का सम्यक्रूप से विचार करके साधुओं को दान देता है वह दाता विज्ञानी (ज्ञानी) है। जो दान देने पर भी मन, वचन, काय से सांसारिक फल की याचना नहीं करता वह दाता अलोलुप (अलोभी) है। जो साधारण स्थिति का होते हुए भी ऐसा दान देता है जिसे देखकर धनवानों को भी आश्चर्य होता है, वह दाता सात्त्विक है। दुर्निवार कलुषता के कारण उत्पन्न होने पर भी जो किसी पर कुपित नहीं होता वह दाता क्षमाशील है। इस तरह दाता के गुणों से दाताओं में भी भेद हो जाते हैं। वैसे प्रत्येक दाता में यह सात गुण . अवश्य होना चाहिए।।२२४।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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