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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२४) आचार्य वसुनन्दि
णेऊण णिययगेहं णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि। ठविऊण तओ चलणाण धोवणं होइ कायव्वं ।। २२७।। पाओदयं पवित्तं सिरम्मि काऊण अच्चणं कुज्जा। गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहिं य फलेहि।। २२८।। पुष्पंजलिं खिवित्ता पयपुरओ वंदणं तओ कुज्जा। चइऊण अट्ट-रुद्दे मणसुद्धि होइ कायव्वा।। २२९।। णिठ्ठर-कक्कस वयणाइवज्जणं तं वियाण वचिसुद्धिं । . सव्वत्थ संपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धि वि।। २३०। । चउदसमलपरिसुद्धं जं दाणं सोहिऊण जइणाए। . . संजयिजणस्स दिज्जइ सा णेया एसणासुद्धी।। २३१।।
. ।।कुलकं।। अन्वयार्थ- (पत्तं) पात्र को, (णियघरदारे दट्ठण) अपने घर के द्वार पर देखकर, (वा) अथवा, (अण्णत्थ विमग्गित्ता) अन्यत्र से विमार्गण कर, (णमोत्थु) नमस्कार हो, (ठाहु) ठहरिये, (त्ति भणिऊण) ऐसा कहकर, (पडिगहणं) प्रतिग्रहण, (कायव्व) करना चाहिए। (णिययगेहं णेऊण) अपने घर में ले जाकर, (णिरवज्जाणु तह उच्चठाणम्मि) निरवद्य तथा ऊँचे स्थान पर, (ठविऊण) बिठाकर, (तओ) तदनन्तर, (चलणाण धोवणं होइ) चरणों को धोना होता है, (सो), (कायव्व) करना चाहिए। (पवित्तं पाओदयं) पवित्र पादोदक को, (सिरम्मि काऊण) सिर में लगा करके, (गंधक्खय-कुसुम-णेवज्ज-दीव-धूवेहि य फलेहि) गन्ध, अक्षत; पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से, (अच्चणं कुज्जा) पूजन करना चाहिए। (तओ) तदनन्तर, (पयपुरओ) चरणों के सामने, (पुष्पंजलि खिवित्ता) पुष्पांजलि क्षेपण कर, (वंदणं कुज्जा) वंदना करे (तथा), (अट्ट-रूद्दे चइऊण) आर्त-रौद्र ध्यान छोड़कर, (मणसुद्धी होइ) मन शुद्धि होती है (सो), (कायव्व) करना चाहिए। (णिट्टर-कक्कस वयणाइवज्जणं) निष्ठुर-कर्कश आदि वचनों का त्याग करने को, (वचिसुद्धि) वचनशुद्धि, (वियाण) जानना चाहिए, (तह) तथा, (सव्वत्थ संपुडंगस्स) सर्वत्र विनीत अंग रखने वाले के, (कायसुद्धी वि होइ) कायशुद्धि भी होती है। (चउदस मल परिसुद्ध) चौदह मल दोषों से रहित, (जइणाए) यतना से, (सोहिऊण) शोधकर, (संजयिजणस्स) संयमी जनों को, (ज) जो, (दाणं) दान, (दिज्जइ) दिया जाता है, (सा) वह, (एसणासुद्धी) एषणा शुद्धि, (णेया) जानना चाहिए।
__ अर्थ- पात्र को अपने घर के द्वार पर देखकर, अथवा अन्यत्र से विमार्गण करखोजकर, 'नमस्कार हो, ठहरिए,' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए। पुन: अपने