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विंसुनन्दि-श्रावकाचार
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आचार्य वसुनन्दि
घर में ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष तथा ऊंचे स्थान पर बिठाकर, तदनन्तर उनके चरणों को धोना चाहिए। पवित्र पादोदक को शिर में लगाकर पुन: गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से पूजन करना चाहिए। तदनन्तर चरणों के सामने पुष्पांजलि क्षेपण कर वन्दना करे। तथा, आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर मन:शुद्धि करना चाहिए। निष्ठुर और कर्कश आदि वचनों के त्याग करने को वचनशुद्धि जानना चाहिए। सब
ओर सम्पुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है। चौदह मल-दोषों से रहित, यतना से शोधकर संयमी जन को जो आहार दान दिया जाता है, वह एषणा-शुद्धि जानना चाहिए।
व्याख्या- सत्पात्रों को अपने घर के द्वार पर देखकर, अथवा अन्यत्र मन्दिर, पुरा, मुहल्ला आदि से विमार्गण कर- खोजकर, नमस्कार हो, ठहरिये' ऐसा कहकर प्रतिग्रहण करना चाहिए। प्रतिग्रहण के बाद उन्हें अपने घर में ले जाकर निरवद्य अर्थात् निर्दोष ऊँचे स्थान पर बिठाकर, प्रासुक जल से उनके चरणों को धोना चाहिए। पाद प्रक्षालन से प्राप्त जल को माथे आदि पर लगाकर, गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल आदि से पूजा करनी चाहिए। पूजन के बाद उनके चरणों के आगे ‘पुष्पांजलि क्षेपण' करें तदनन्तर गवासन आदि शुभ आसन से नमस्कार करना चाहिए। पुन: आतं, रौद्रध्यान छोड़कर शुभ कार्यों में मन को लगाकर मनशुद्धि करना चाहिए। निष्ठुर, कर्कश, खोटे वचनों का त्याग करना, वचनशुद्धि है। सब ओर से सम्पुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है। अर्थात् विनीत होना चाहिए। चौदह मल दोषों से रहित यत्नपूर्वक शोधकर संयमीजनों को जो आहारदान दिया जाता है, वह एषणा शुद्धि जानना चाहिए।
नवधाभक्ति के सम्बन्ध में आचार्य अमृतचन्द्र, पं० आशाधर एवं सम्यक्त्व कौमुदीकार आदि आचार्यों का यही मत हैं कि सर्वप्रथम दाता (श्रावक) अपने घर से बाहर निकल कर पात्रों को इधर-उधर देखें अथवा अन्यत्र मन्दिर, धर्मशाला अथवा चौराहा आदि स्थान से प्राप्त कर 'हे स्वामी नमोऽस्तु... नमोऽस्तु... नमोऽस्तु, अत्र... अत्र...अत्र... तिष्ट... तिष्ट... तिष्ट... वचन बोलकर उन्हें अपने घर में लेजाकर स्वच्छ-निर्दोष ऊँचे आसन पर बैठाकर उनके पैर धोवे तदनन्तर पादोदक माथे (सिर) पर लगावे और पूजन करें। पूजन के बाद पुष्पांजलि क्षेपण कर पंचांग प्रमाण
मनशुिद्धि के लिए आर्त-रौद्र ध्यान छोड़कर धर्मध्यान और शुभकार्यों का आश्रय लेना चाहिए। निष्ठुर (कठोर), कर्कश, खोटे, गन्दे वचनों का त्याग कर मौन रहना अथवा शुभ वचन बोलना यह वचन शुद्धि है। विनम्र भावों से युक्त होकर विनम्र शरीर वाला होना तथा शुभ क्रियायें करना व शारीरिक शुद्धि रखना कायशुद्धि जानना चाहिए।