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(वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२६)
आचार्य वसुनन्दि) एषणशुद्धि अर्थात् भोजन-पानशुद्धि- इसके अन्तर्गत पात्र को चौदह मल-दोषों से रहित, यत्नपूर्वक शोधकर आहार दान दिया जाता है।
प्रस्तुत श्रावकाचार की अ००व० प्रति में एक गाथा अधिक प्राप्त है, जो चौदह दोषों का विवेचन करती है। मूलत: वह गाथा मूलाचार (४८४) में प्राप्त है। अत: उसे आ. वसुनन्दी की मानना कहा तक उचित है यह विद्वानों का विषय है। देखिये गाथा
णह-जंतु-रोम-अट्ठी-कण-कुंडय-मंस-रुहिर-चम्माइं। ... कंद-फल-मूल-बीया छिण्ण मला चउद्दशा होति ।।४८४।।
अर्थ- नख-जन्तु, रोम, हड्डी, कण (मल) कुंडय (मूत्र), मांस, रुधिर, चर्म (चमड़ा), कन्द, फल, मूल, बीज, छिन्न यह चौदह मल कहलाते हैं। इनसे रहित शुद्ध आहार सत्पात्रों को देना एषणा-शुद्धि है। इन नौ-विधियों से पात्रों का दान देना चाहिए।।२२६-२३१।।
उपसंहार एवं प्रतिज्ञा, दाणसमयम्मि एवं सुत्ताणुसारेण णव विहाणाणि।
भणियाणि मए एण्हिं दायव्वं वण्णइस्सामि।। २३२।।
अन्वयार्थ– (एवं) इस प्रकार से, (सुत्ताणुसारेण) सूत्रानुसार, (मए) मैंने, (दाणसमयम्मि) दान के समय में, (णवविहाणाणि) नौ विधानों को, (भणियाणि) कहा।, (एण्हि) अब, (दायव्यं) दातव्य का, (वण्णइस्सामि) वर्णन करूँगा।
अर्थ- इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार मैंने दान के समय में आवश्यक नौ विधानों को कहा। अब दातव्य वस्तु का वर्णन करूँगा।
व्याख्या- इस प्रकार उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार मैंने दान के प्रकरण में आवश्यक नौ विधानों अर्थात् नवधा भक्ति का वर्णन किया। अब आगे दान देने योग्य वस्तु के सम्बन्ध में चर्चा करूँगा। उपरोक्त नौ-विधानों का प्रत्येक श्रावक को ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है।। २३२ ।।
• दातव्य-वर्णन
दातव्य किसे कहते हैं? आहारोसह-सत्थाभयभेओ जं चउव्विहं दाणं।
तं वुच्चइ दायव्वं णिहिट्ठमुवासयज्झयणे ।। २३३।। . १. झ.ब.एयं.