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________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२२७) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ– (आहारोसह-सत्याभयभेओ) आहार, औषध, शास्त्र, अभय के भेद से, (ज) जो, (चउव्विहं दाणं) चार प्रकार का दान है, (तं) व, (दायव्यं) दातव्य, (वुच्चइ) कहलाता है (ऐसा), (उवासयज्झयणे) उपासकाध्ययन में, (णिहिट्ठम्) कहा गया है। अर्थ- आहार, औषध, शास्त्र और अभय के भेद से जो चार प्रकार का दान है, वह दातव्य कहलाता है, ऐसा उपासकाध्ययन में कहा गया है। · व्याख्या- आहार दान, औषध दान, शास्त्र दान अथवा ज्ञानदान, और अभयदान अथवा आवासदान यह चार प्रकार का दान दातव्य है। जो वस्तु किसी के उपकारार्थ दी जाने योग्य है, वह दातव्य है। ऐसा उपासकाध्ययनसूत्र में कहा गया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गुणनिधये। अनपेक्षितोपंचारोपक्रियमगृहाय विभवेन।।१११।। अर्थ-तप ही जिसका धन है तथा सम्यग्दर्शनादि गुणों के जो निधान है ऐसे गृहत्यागी मुनीश्वर के लिए विधि द्रव्य आदि सम्पत्ति के अनुसार प्रतिदान और प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित धर्म के निमित्त जो दान दिया जाता है, वह वैयावृत्य कहलाता है। आ० समन्तभद्र ने दान को ही वैयावृत्ति कहा है। "व्यावृत्ति: दुःखनिवृत्ति: प्रयोजनं यस्स तत् वैयावृत्यं” इस व्युत्पत्ति के अनुसार दुःखनिवृत्ति ही जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्य कहते हैं। वैयावृत्य में भी दान की प्रधानता है। आगे वे कहते हैं - नवपुण्यैः प्रतिपत्तिः सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ।। २१३।। अर्थ- सात गणों से सहित और कौलिक, आचारिक तथा शारीरिक शद्धि से सहित दाता के द्वारा गृह सम्बन्धी कार्य तथा खेती आदि के आरम्भ से रहित सम्यग्दर्शनादि गुणों से सहित मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक जो आहारादि के द्वारा गौरव किया जाता है, वह दान माना जाता है। दान अथवा दातव्य के चार भेद करते हुए वे आगे लिखते हैं आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन। वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः।।११७।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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