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________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार (२५७) आचार्य वसुनन्दि से शोभित उत्तम-उत्तम नदियाँ होती हैं। वहाँ असंज्ञी जीव भी पैदा नहीं होते और न ही वहाँ के जाति विरोधी जीव आपस में वैर-भाव या शत्रुता रखते हैं। वहाँ रात-दिन का भेद नहीं होता है एवं जुआ खेलना, शिकार करना, मांस खाना, परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन (पाप) भी नहीं होते हैं। वहाँ के मनुष्यों की उत्पत्ति एक ही माता-पिता से पुत्र-पुत्री के रूप में होती है, बाद में वे पति-पत्नी जैसा व्यवहार करने लगते हैं, क्योंकि वहाँ विवाह आदि की परम्परा नहीं है, पुरुष को आर्य एवं स्त्री को आर्या कहते हैं। वे युगल मनुष्य उत्तम तिल मशा आदि व्यंजनों एवं शंख, चक्र आदि चिह्नों सहित तथा स्वामी और नौकर (भृत्य) के भेदों से रहित होते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस (लगभग नौ कि.मी. से कुछ अधिक) तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। यहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। ये चार दिन में बेर बराबर भोजन करते हैं। इनके शरीर मलमूत्र पसीने से रहित, सुगन्धित निश्वास से सहित, तपे हुए स्वर्ण सदृश वर्ण वाले, समचतुरस्र संस्थान और वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त होते हैं, प्रत्येक मनुष्य का बल नौ हजार हाथियों सदृश होता है। इस भूमि में नर-नारी के अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता है और न ही ग्राम-नगर आदि की रचना ही होती है। दुकान और बाजार आदि भी नहीं होते केवल दस प्रकार के कल्प-वृक्ष होते हैं जो युगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।। २५८।। मध्यमभोगभूमियाँ मनुष्यों की ऊँचाई-आयु और कान्ति देहस्सुच्चत्तं मज्झिमासु चत्तारि धणुसहस्साई। - पल्लाणि दुण्णि आऊ पुणिंदुसमप्पहा पुरिसा ।। २५९।। . अन्वयार्थ– (मज्झिमासु) मध्यम भोगभूमियों में, (देहस्सुच्चत्तं) देह की ऊँचाई, (चत्तारिधणुसहस्साई) चार हजार धनुष है, (दुण्णि पल्लाणि आऊ) दो पल्य की आयु है, (पुरिसा पुण्णिंदुसमप्पहा) पुरुष पूर्णचन्द्र के समान प्रभा वाले • होते हैं। ____ अर्थ- मध्यम भोगभूमियों में देह की ऊँचाई चार हजार धनुष है, दो पल्य की - आयु है, और सभी पुरुष पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाले होते हैं।। ____ व्याख्या– मध्यम भोगभूमियों में हमेशा द्वितीय ‘सुषमा' नामक काल रहता है। यहाँ के मनुष्य चार हजार धनुष अर्थात् दो कोस (लगभग छह कि.मी. से कुछ अधिक) ऊँचे, दो पल्य प्रमाण आयु वाले और वर्ण चन्द्रमा के सदृश धवल होता है। इनके पृष्ठ भाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। अतीव सुन्दर समचतुरस्र संस्थान से युक्त ये भोगभूमिज तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। यहाँ इतनी विशेषताएँ हैं, शेष उत्तम भोग-भूमि के समान जानना चाहिए।।२५९।।
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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