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________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि (२५६) आदि के दिव्य वस्त्रों को देते हैं। भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं । । २५६ ।। मालांग जाति के कल्पवृक्ष वर - बहुलं परिमलामोयमोड़यासामुहाउ मालाओ। मालादुमा पयच्छंति विविह कुसुमेहिं रइयाओ ।। २५७ ।। अन्वयार्थ – (मालादुमा) मालांग- कल्पवृक्ष, (विविहकुसुमेहिं) नाना प्रकार के पुष्पों से, (रइयाओ) रची हुई, (वर - बहुल परिमलामोयमोइयासामुहाउ) प्रवर, बहुल, परिमल सुगंध से दिशाओं के मुख को सुगन्धित करने वाली, (मालाओ )मालाओं को, (पयच्छंति) देते हैं। विशेषार्थ — मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छ और लताओं से उत्पन्न हुए बहुत सुगंधी प्रदान करने वाली, अत्यन्त कोमल और रमणीय सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं । । २५७ ।। . उत्तमभोगभूमियाँ मनुष्यों की कान्ति, ऊँचाई और आयु उक्कि भोयभूमीसु जे गरा उदय सुज्ज समतेया । छधणुसहस्त्तुंगा हुति तिपल्लाउगा सव्वे ।। २५८ ।। - अन्वयार्थ – (उक्किट्ठ भोयभूमीसु) उत्कृष्ट भोगभूमि में, (जे णरा) जो मनुष्य हैं, (ते-वे) (सव्वे) सब, (उदय - सुज्ज समतेया ) उदय होते हुए सूर्य के समान तेजवाले, (छधणुसहस्सुत्तुंगा) छह हजार धनुष ऊँचे (और), (तिपल्लाउगा) तीन पल्य की आयु वाले, (हुंति) होते हैं । अर्थ - उत्कृष्ट भोगभूमि में जो मनुष्य हैं, वे सब उदय होते हुए सूर्य के समान तेजवाले छह हजार धनुष ऊँचे और तीन पल्य की आयु वाले होते हैं। भावार्थ— उत्तम भोगभूमि में हमेशा प्रथम सुषमा- सुषमा काल रहता है। वह भूमिरज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित एवं शंख, बिच्छू, चींटी, टिड्डी, मक्खी, खटमल आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। वहाँ दिव्य बालु, मधुर गंध से युक्त मिट्टी और पंचवर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण (धूब) होते हैं। वहाँ वृक्षों के समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ (बावड़ी), उन्नत पर्वत, उत्तम-उत्तम प्रासाद (महल), इन्द्रनील मणि आदि से सहित पृथ्वी एवं मणिमय बालू ★ ब. बहल. इ. सहस्सा तुंगा. १.
SR No.002269
Book TitleVasnunandi Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar, Bhagchandra Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1999
Total Pages466
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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